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________________ मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम) ५६५/११८८ परिशिष्ट-६ (मीमांसा दर्शन का विशेषार्थ-प्रमाणम्) मानमेयविभागेन वस्तूनां द्विविधा स्थितिः । अतस्तदुभयं ब्रूमः श्रीमत्कौमारिलाध्वना ।।१।। विश्व के समस्त पदार्थों को 'प्रमाण' और 'प्रमेय' - इन दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है, अतः यहाँ हम (नारायण भट्ट) श्री कुमारिल भट्ट के मतानुसार प्रमाण और प्रमेय का निरूपण करेंगे ।।१।। प्रमाकरणमेवात्र प्रमाणं तर्कपक्षवत् । प्रमा चाज्ञाततत्त्वार्थज्ञानमेवात्र भिद्यते ।।२।। न्याय-मत के समान ही भाट्टमत में भी प्रमाण का लक्षण है - 'प्रमाकरणम्' । किन्तु प्रमा का लक्षण यहाँ न्याय-मत से भिन्न है, क्योंकि नैयायिक प्रमा का लक्षण करते हैं - 'यत्र यदस्ति, तत्र तस्यानुभवः प्रमा, तद्वति तत्प्रकारकानुभवो वा' (त. चिं. पृ. ४३४-४३६) । किन्तु कुमारिल भट्ट अज्ञाततत्त्वार्थ विषयक ज्ञान को प्रमा कहते हैं - "सर्वस्यानुपलब्धेऽर्थे प्रामाण्यं स्मृतिरन्यथा" (श्लो.वा.पृ. २११) । 'अज्ञात' या 'अनुपलब्ध' पद के द्वारा स्मृति और अनुवादरूप अप्रमा ज्ञानों की व्यावृत्ति की गई है । तार्किकादि अनुवाद को अप्रमा नहीं मानते, क्योंकि उनके मतानुसार तद्वद्विशेष्यक तत्प्रकारक ज्ञान होने के कारण अनुवाद भी प्रमा ही होता है किन्तु हमारा (भाट्ट का) कहना हैं कि प्रमा ज्ञान विषय वस्तु का परिच्छेद (निश्चय) कराता है, तदर्थी प्रमाता को उधर प्रवृत्त करता है और प्रमेयार्थ की प्राप्ति कराता है, जैसा कि महर्षि वात्स्यायन कहते हैं - "प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तो प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणम्" (न्या.भा.पृ. १) । अनुवाद यह कुछ भी नहीं करता है अर्थात् वह न तो अज्ञात वस्तु का प्रकाश करता है, न पुरुष को प्रवृत्त करता है और न प्रमेय की प्राप्ति कराता है, अतः अनुवाद का प्रमाकोटि से सर्वथा बहिष्कार ही कर देना चाहिए । आचार्य श्री धर्मोत्तर ने भी ऐसा ही निर्णय दिया है - "अनधिगतविषयं प्रमाणम् । येनैव ज्ञानेन प्रथममधिगतोऽर्थः,. तेनैव प्रवर्तितः पुरुषः प्रापितश्चार्थः, तत्रैव चार्थे किमन्येन ज्ञानेनाधिकं कार्यम् ? अतोऽधिगतविषयमप्रमाणम्" (ध.प्र.पृ. १९) । अनुवाद का पूर्ववर्ती (पुरोवादरूप) प्रमा ज्ञान जो कार्य करता है, उससे अधिक अनुवाद कुछ भी नहीं कर सकता, प्रकाशित पदार्थ का पुनः प्रकाश अपेक्षित भी नहीं होता कि, अनुवाद की प्रवृत्ति सार्थक हो जाती, श्री कुमारिल भट्ट कहते हैं - प्रमितस्य प्रमाणे हि नापेक्षा जायते पुनः । ताद्रूप्येण परिच्छिन्ने प्रमाणं निष्फलं परम् ।। (श्लो.वा.पृ. ३६३) श्री पार्थसारथि मिश्र ने भी प्रमा का लक्षण किया है - "कारणदोषबाधज्ञानरहितमगृहीतग्राहिज्ञानं प्रमाणम" (शा.दी.प. ४५) । यहाँ सर्वत्र 'प्रमाण' शब्द से 'प्रमा' ज्ञान ही विवक्षित है । शङ्का : अज्ञात विषयक ज्ञान को प्रमा मानने पर 'घटोऽयम्', 'घटोऽयम्' - इस प्रकार के धारावाहिक प्रमा ज्ञानों में द्वितीयादि ज्ञान व्यक्तियों को अप्रमा मानना होगा, क्योंकि वे अज्ञात विषयक ज्ञान न होकर ज्ञातविषयक ही ज्ञान हैं । समाधान : यद्यपि धारावाहिक ज्ञानों के 'अयम्-अयम्' - इत्यादि आकार समान हैं, तथापि 'अयम्' शब्द से उल्लिख्यमान प्रत्येक क्षण की विषय वस्तु भिन्न-भिन्न होती है । प्रथम ज्ञान का विषय प्रथमक्षणावच्छिन्न घट ही हैं, द्वितीयक्षणावच्छिन्न घट नहीं, अतः द्वितीय ज्ञान प्रथम ज्ञान के द्वारा अगृहीत द्वितीयक्षणावच्छिन्न घट को विषय करने के कारण प्रमा हो जाता है । [श्री पार्थसारथि मिश्र भी कहते हैं - "धारावाहिकेष्वप्युत्तरोत्तरेषां कालान्तरसम्बन्धस्यागृहीतस्य ग्रहणाद् युक्तं प्रामाण्यम्" (शा.दी.पृ. ४५) । मीमांसकगण सूक्ष्म एवं नीरूप काल-खण्ड (क्षण) का भी प्रत्यक्ष मानते हैं, सिद्धान्तचन्द्रिकाकार कहते हैं - "नास्माकं वैशेषिकादिवदप्रत्यक्षः कालः, किन्तु प्रत्यक्ष एव “अस्मिन् क्षणे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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