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________________ ५५८ / ११८१ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-५ शासनरूप अर्थ के बिना इन्द्र प्रतिमा का बोध भी इन्द्र पद कराता है, इस लिए नाम में स्थापना का अन्तर्भाव हो सकता है । 2 व्यवहार नव के मत में स्थापना निक्षेप नहीं है, इस मत के माननेवाले भी लोक में प्रचलित व्यवहार का आश्रय प्रधानरूप से लेते हैं। लोग मुख्यरूप से संकेत के द्वारा गोपाल के बालक आदि को स्वर्ग के अधिपति भाव इन्द्र को और जो जीव अन्य भव में इन्द्र पद को प्राप्त करेगा उसको इन्द्र कहते हैं। इसलिए व्यवहार नय के अनुसार नाम, द्रव्य और भाव ये तीन निक्षेप हैं, स्थापना नहीं है । अन्यमत का खंडन : तन्नानवद्यं यतः संग्रहिकोऽसंग्रहिकोऽनर्पितभेदः परिपूर्णो वा नैगमस्तावत् स्थापनामिच्छतीत्यवश्यमभ्युपेयम्, सङ्ग्रह व्यवहारयोरन्यत्र द्रव्यार्थिके स्थापनाभ्युपगमावर्जनात् । अर्थ : यह कथन निर्दोष नहीं है, क्योंकि संग्रहिक, असंग्रहिक अथवा भेद की विविक्षा न करनेवाला परिपूर्ण नैगम स्थापना को मानता है - यह अवश्य मानना होगा । संग्रह और व्यवहार से भिन्न द्रव्यार्थिक में स्थापना का त्याग नहीं है, इससे यह तत्त्व सिद्ध होता है । कहने का आशय यह है कि, संग्रह और व्यवहार में स्थापना के त्याग का प्रतिपादन करनेवाला वादी जिन हेतुओं को कहता है, वे हेतु संग्रह और व्यवहार का विरोध नहीं प्रकट करते। वे हेतु नाम में स्थापना का अन्तर्भाव करते हैं। और इस कारण वादी स्थापना के त्याग को स्वीकार करता है । विचार कर देखा जाय तो अन्तर्भाव मानने पर स्थापना का स्वीकार आवश्यक हो जाता है। संग्रह और व्यवहार जब नाम को स्वीकार करते हैं, तो नाम के अन्तर्गत स्थापना को स्वीकार करते हैं - यह मानना होगा । नाम से स्थापना का स्वरूप भिन्न हो और उसका संग्रह और व्यवहार के साथ संबंध न हो सकता हो, तब स्थापना का त्याग कहा जा सकता है । जिन हेतुओं से नाम में स्थापना का अन्तर्भाव कहा है, वे युक्त नहीं हैं । इन्द्र पद केवल संकेत के बल से ऐश्वर्य हीन गोपाल बालक रूप नाम इन्द्र का वाचक है परन्तु इन्द्र की प्रतिमा में इस पद का प्रयोग संकेत के कारण नहीं होता । इन्द्र पद का प्रयोग गोपाल बालक के लिए जिस प्रकार होता है, इस प्रकार इस प्रतिमा के लिए भी होता इतने से यदि नाम और स्थापना से अभेद माना जाय तो नाम के द्वारा द्रव्य का भी अन्तर्भाव मानना चाहिए। द्रव्य इन्द्र में भी इन्द्र पद का प्रयोग होता है। यदि आप भाव के साथ संबंध का भेद होने से नाम और द्रव्य का भेद स्वीकार करें तो नाम और स्थापना में भी भेद मानना होगा । द्रव्य परिणामी कारण है, द्रव्य भावरूप में परिणत होता है। नाम का परिणाम भावरूप में नहीं होता, इन्द्र नाम स्वर्गाधिपति इन्द्र के रूप में नहीं हो जाता । इन्द्र नाम केवल संकेत के बल से गोपाल के बालक का प्रतिपादन करता है। इस कारण नाम और द्रव्य का भेद हो तो नाम और स्थापना का भी भेद अपरिहार्य हो जाता है। स्थापना के साथ नाम का संबंध केवल संकेत के कारण नहीं है। ऐश्वर्यरूप अर्थ के साथ संबंध होने से इन्द्र पद का संकेत भाव इन्द्र में जिस प्रकार होता है, इस प्रकार इन्द्र प्रतिमारूप स्थापना में नहीं होता । प्रतिमा स्वर्ग पर शासन नहीं करती, स्थापना में इन्द्र पद का प्रयोग मुख्य रूप से नहीं है। सादृश्य के कारण स्थापना में इन्द्र पद का प्रयोग होता है। सादृश्य रूप संबंध भी सद्भाव स्थापना में होता है । असद्भाव स्थापना में तो सादृश्य भी प्रयोजक नहीं होता । वहाँ केवल अभिप्राय प्रयोजक होता है । नाम निक्षेप में अभिप्राय प्रयोजक नहीं होता- इस लिए नाम के द्वारा स्थापना का अर्न्तभाव युक्त नहीं है । नाम आदि चारों का भिन्न स्वरूप के साथ संबंध संग्रह और व्यवहार में स्वीकार करना चाहिए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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