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________________ निक्षेपयोजन ५५७/११८० किञ्च, इन्द्रादिसंज्ञामात्रं तदर्थरहितमिन्द्रादिशब्दवाच्यं वा नामेच्छन् अयं भावकारणत्वाविशेषात् कुतो नाम द्रव्यस्थापने नेच्छत् ?। प्रत्युत सुतरां तदभ्युपगमो न्याय्यः । इन्द्रमूर्तिलक्षणद्रव्य-विशिष्टतदाकाररूपस्थापनयोरिन्द्रपर्यायरूपे भावे तादात्म्यसंबन्धेनावस्थितत्वात्तत्र वाच्य-वाचकभावसम्बन्धेन संबद्धान्नाम्नोऽपेक्षया सन्निहिततरकारणत्वात् । __अर्थ : उपरांत, भी, यह ऋजुसूत्र केवल इन्द्र आदि संज्ञा रूप नाम को अथवा इन्द्र आदि के अर्थ से रहित इन्द्र आदि शब्द के द्वारा वाच्य वस्तु रूप नाम को मानता है, तो भाव का कारण होने में कोई भेद न होने से द्रव्य और स्थापना को क्यों नहीं मानेगा? उलटा उसका मानना अधिक उचित है । इन्द्र मूर्तिरूप द्रव्य और इन्द्र का विशिष्ट आकार रूप स्थापना ये दोनों इन्द्र पर्याय रूप भाव में तादात्म्य संबंध से रहते हैं, पर नाम वाच्य-वाचक संबंध से रहता है, इसलिए नाम की अपेक्षा द्रव्य और स्थापना भाव के अधिक निकट कारण हैं । कहने का आशय यह है कि, ऋजुसूत्र नाम को स्वीकार करता है यह आप भी मानते हैं । नाम दो प्रकार का हो सकता हैं, केवल इन्द्र आदि संज्ञा रूप अथवा इन्द्र के मुख्य अर्थ से रहित पर इन्द्र शब्द से वाच्य गोपाल का बालक आदि वस्तुरूप है । ये दोनों प्रकार के नाम भाव के कारण हैं इस लिए इनको ऋजुसूत्र स्वीकार करता है । नाम निक्षेप के मानने का कारण द्रव्य और स्थापना में भी विद्यमान है, इतना ही नहीं, नाम की अपेक्षा द्रव्य और स्थापना इन्द्र पर्याय रूप भाव में अधिक निकटवर्ती हेतु हैं । इन्द्र की मूर्ति द्रव्य है और उसका विशिष्ट आकार स्थापना है । ये दोनों इन्द्र पर्याय रूप भाव में अभेद से विद्यमान हैं । इन्द्र की मूर्ति और उसका विशिष्ट आकार दोनों भाव इन्द्र से अलग होकर नहीं दिखाई देते, परन्तु नाम भावइन्द्र से अलग होकर प्रतीत होता है । नाम का भाव के साथ सम्बन्ध वाच्य-वाचक भावरूप है । द्रव्य और आकार के समान नाम सर्वथा भाव के स्वरूप में नहीं प्रतीत होता, इसलिए नाम की अपेक्षा अधिक निकट होने से ऋजुसूत्र द्रव्य और स्थापना को स्वीकार करता हैं । संग्रह और व्यवहारनय स्थापना नहीं मानते - इस मत का खंडन करते हुए बताते है कि, अन्य मत : संग्रहव्यवहारौ स्थापनावर्जास्त्रीनिक्षेपानिच्छत इति केचित्; अर्थ : संग्रह और व्यवहार स्थापना को छोडकर अन्य तीन निक्षेपों को स्वीकार करते हैं - यह कुछ लोगों का मत हैं; कहने का सार यह है कि, संग्रह के अनुसार स्थापना को न माननेवाले नाम निक्षेप के द्वारा स्थापना का संग्रह कर लेते हैं । उनका अभिप्राय इस प्रकार है- भिन्न अर्थों को साधारण धर्म के द्वारा संग्रह एक कर देता है । नाम निक्षेप का स्वरूप इस प्रकार का है - जिसके द्वारा स्थापना भी नाम नक्षेप के अन्दर चली जाती है । एक नाम वर्ण रूप है और दूसरा नाम इन्द्र पद के संकेत का विषयरूप है । जिस प्रकार स्वर्ग के अधिपति भावइन्द्र से भिन्न होने पर भी संकेत के कारण इन्द्रपद गोपाल के बालक का भी बोधक हो जाता है, इस प्रकार संकेत के कारण स्थापना इन्द्र का भी बोधक हो जाता है। इन्द्र नाम से प्रतीत होने के कारण स्थापना भी नाम के अन्तर्गत है । यद्यपि इन्द्र द्वारा भाव इन्द्र का भी ज्ञान होता है, परन्तु इस कारण भाव और नाम का ऐक्य नहीं हो सकता । भाव इन्द्र का बोध इन्द्र पद मुख्यवृत्ति से कराता है । स्वर्ग का अधिपति ऐश्वर्य से यक्त है, इस लिए उसमें इन्द्र पद का संकेत अर्थ के अनसार है, परन्त गोपाल के बालक में इन्द्र पद का संकेत अर्थ के अनुसार नहीं है । गोपाल का बालक स्वर्ग पर शासन नहीं करता, इस लिए वह वस्तुतः इन्द्र नहीं है। माता-पिता के द्वारा संकेत कर देने के कारण वह इन्द्र कहा जाता है, अत: नाम के द्वारा भाव का संग्रह नहीं हो सकता। अर्थ के बिना केवल संकेत से इन्द्र पद जिस प्रकार गोपाल के बालक का बोध कराता है, इस प्रकार स्वर्ग पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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