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निक्षेपयोजन
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इसके अतिरिक्त यह वादी संग्रह और व्यवहार से भिन्न द्रव्यार्थिक में स्थापना का स्वीकार मानता है । संग्रह और व्यवहार से भिन्न नैगम नय द्रव्यार्थिक है, इस विषय में मतो का भेद नहीं है । अब इस वादी को नैगम में स्थापना का स्वीकार मानना होगा । नैगम के तीन भेद किये जाते हैं । एक संग्रहिक है, दूसरा असंग्रहिक है, तीसरा परिपूर्ण नैगम है। इन तीनों नैगमों में स्थापना को मान लेने पर संग्रह और व्यवहार में भी स्थापना का निक्षेप आवश्यक हो जाता है । अब गम के तीन भेद स्वीकारने से संग्रह और व्यवहार में भी स्थापना निक्षेप का स्वीकार आवश्यक होगा, वह क्रमशः युक्ति पुरस्सर बताते है
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तत्राद्यपक्षे संग्रहे स्थापनाभ्युपगमप्रसङ्गः, संग्रहनयमतस्य संग्रहिकनैगममताविशेषात् । द्वितीये व्यवहारे तदभ्युपगमप्रसङ्गः, तन्मतस्य व्यवहारमतादविशेषात् ।
अर्थ : इनमें से पहला पक्ष हो तो संग्रह में स्थापना को स्वीकार करना पडेगा, क्योंकि संग्रह नय के मत में और संग्रहिक नैगम के मत में कोई भेद नहीं है । दूसरा पक्ष हो तो व्यवहार में स्थापना को स्वीकार करना पडेगा, क्योंकि, असंग्रहिक नैगम और व्यवहार के मत में भेद नहीं है ।
कहने का आशय यह है कि, संग्रहिक नैगम संग्रह के मत को मानता है । संग्रह जिस प्रकार सामान्य को स्वीकार करता है, इस प्रकार संग्रहिक नैगम भी सामान्य को स्वीकार करता है । यदि संग्रह के मत का माननेवाला नैगम स्थापना को मानता है, तो संग्रह को भी समान मत होने से स्थापना को मानना पडेगा । यदि आप असंग्रहिक नैगम के मत में स्थापना को स्वीकार करते हैं, तो व्यवहार नय में स्थापना को मानना पडेगा । असंग्रहिक नैगम व्यवहार नय के मत को मानता है । व्यवहारनय जिस प्रकार विशेष को स्वीकार करता है । इस प्रकार असंग्रहिक नैगम भी विशेष को स्वीकार करता है । यदि असंग्रहिक नैगम स्थापना को माने, तो समान मत होने से व्यवहार में भी स्थापना आवश्यक हो जाती है । तीसरा विकल्प के विषय में खुलासा करते है,
तृतीये च निरपेक्षयोः संग्रहव्यवहारयोः स्थापनाभ्युपगमोपपत्तावपि समुदितयोः संपूर्णनैगमरूपत्वात्तदभ्युपगमस्य दुर्निवारत्वम् अविभागस्थान्नैगमात्प्रत्येकं तदेकैकभागग्रहणात् ।
अर्थ : तीसरे पक्ष को माना जाय तो निरपेक्ष संग्रह और व्यवहार में स्थापना का अस्वीकार हो सकता है, पर परस्परं मिले हुए संग्रह और व्यवहार संपूर्ण नैगम के स्वरूप में हो जाते हैं, इसलिए उनको स्थापना स्वीकार करना पडेगा । विभाग रहित नैगम नय के एक एक भाग को संग्रह और व्यवहार स्वीकार करते हैं ।
आशय यह है कि, परिपूर्ण नैगम संग्रह और व्यवहार से विलक्षण है, इसलिए यदि वह स्थापना को स्वीकार करे तो संग्रह और व्यवहार के अनुसार स्थापना अनिवार्य नहीं होती, पर परस्पर मिलकर संग्रह और व्यवहार संपूर्ण नैगम के समान हो जाते हैं । इस दशा में संपूर्ण नैगम के एक एक भाग को लेनेवाले संग्रह और व्यवहार के लिए भी स्थापना आवश्यक हो जाती है । अब इस विषय में अधिक स्पष्टता करते है
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किञ्च, संग्रहव्यवहारयोर्नैगमान्तर्भावात्स्थापनाभ्युपगमलक्षणं तन्मतमपि तत्रान्तर्भूतमेव, उभयधर्मलक्षणस्य विषयस्य प्रत्येकमप्रवेशेऽपि स्थापनालक्षणस्यैकधर्मस्य प्रवेशस्य सूपपादत्वात्, स्थापना सामान्यतद्विशेषाभ्युपगममात्रेणैव संग्रहव्यवहारयोर्भेदोपपत्तेरिति यथागमं भावनीयम् ।
अर्थ : उपरांत, संग्रह और व्यवहार में नैगम का अन्तर्भाव है, इसलिए स्थापना का स्वीकार रूप जो नैगम का मत है, वह भी उन दोनों के अन्तर्गत है । उभय धर्मरूप अर्थात् सामान्य- विशेष रूप विषय किसी एक में नहीं प्रविष्ट होता पर
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