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________________ निक्षेपयोजन ५४५/११६८ और वह नियत समय पर वाहनों के प्राप्ति स्थान पर न पहुँचे तो उसको इस प्रकार का भी वाहन मिल सकता है जो उसके वांछित दूसरे अथवा तीसरे स्थान तक तो जाता हो पर वांछित चौथे स्थान तक न जाता हो । इस प्रकार की दशा में यात्री को दूसरे अथवा तीसरे स्थान तक रहना पडेगा । यह सब चित्त के एकाग्र न होने का फल है । एकाग्र चित्त के बिना की हई इस प्रकार की क्रिया भी अप्रधान क्रिया है और वह द्रव्य क्रिया कही जाती है । लौकिक क्रिया के समान शास्त्र में विहित क्रिया भी विधि के ज्ञान और एकाग्र चित्त के होने पर फल देती है। शास्त्र में सम्यक् चारित्र को मोक्ष का कारण कहा गया है । यदि कोई, लोगों को वंचित करने के लिए चारित्र का पालन करता हो तो उसको मोक्ष नहीं मिलेगा किन्तु अनेक जन्मों में दु:ख मिलेगा । वंचना के साथ किया हुआ चारित्र मुख्य रूप से चारित्र नहीं है. अप्रधान चारित्र है और इस कारण द्रव्य चारित्र है । ___ अधिकार न होने के कारण भी क्रिया अप्रधान हो जाती है और उचित फल नहीं उत्पन्न करती । वह पथिक जो मार्ग को जानता है और पहुँचने के स्थान के लिए एकाग्र चित्त भी है, वह यदि रोगी हो और दूर तक चलने में असमर्थ हो तो कुछ दूर तक चलकर रह जायेगा और वांछित स्थान पर न पहुँच सकेगा । रोगी पथिक दूर तक की यात्रा का है । उसको यात्रा अप्रधान क्रिया रूप है इसलिए वांछित स्थान तक पहुँचाने में असमर्थ है । रोगी यात्री के समान अभव्य और दूरभव्य जी यदि एकाग्र चित्त से पूजा करे तो भी अधिकारी न होने से इष्ट फल को नहीं प्राप्त कर सकता। तीर्थंकर आदि की पूजा के देखने से सामायिक का ज्ञान प्राप्त होने के कारण उसकी पूजा में प्रवृत्ति हो सकती है पर इष्ट फल नहीं मिल सकता । जिसका चित्त एकाग्र नहीं है, जो संसार के अन्य विषयों का चिन्तन कर रहा है उसकी पूजा भी द्रव्य क्रिया है । वह मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं है । जिनेन्द्र के राग-द्वेष आदि से रहित स्वरूप का एकाग्र चित्त के द्वारा चिंतन न हो तो साधक के राग-द्वेष आदि दोष क्षीण नहीं होते, इस कारण उसको मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता । जो एकाग्र चित्त से भक्ति के साथ पूजा करता है पर विधि के साथ नहीं करता अथवा पुत्र ऐश्वर्य आदि की कामना से करता है उसकी पूजा भी द्रव्य पूजा है । विधि के बिना पूजा यदि भक्ति के साथ भी की जाय तो वह राग आदि के नाश में प्रधान रूप से साधन नहीं रहती । परंपरा के द्वारा मोक्ष का साधन होने के कारण वह अप्रधान द्रव्य रूप हो जाता है। लौकिक फल का अभिलाषी भक्त पुत्र आदि फल प्राप्त कर के संसार में रह जायेगा । उसको मोक्ष न मिलेगा । यदि वह राग आदि के क्षय के लिए भक्ति करे तो विधि के अनुसार न होने पर भी पूजा परंपरा से मोक्ष का कारण हो सकती है। विधि के विरोध का जो दोष है वह भक्ति के कारण निरंतर अनिष्ट फल की उत्पत्ति में असमर्थ हो जाता है । आचार्यों के इस अभिप्राय के अनुसार विधि रहित और भक्ति सहित पूजा भी द्रव्य पूजा है । • भावनिक्षेप का स्वरूप : विवक्षितक्रियानुभूतिविशिष्टं स्वतत्त्वं यनिक्षिप्यते स भावनिःक्षेपः, यथा इन्दनक्रियापरिणतो भावेन्द्र इति। (जैनतर्क भाषा) अर्थ : वक्ता जिस क्रिया की विवक्षा करता है, उसकी अनुभूति से युक्त जो स्वतत्त्व निक्षिप्त किया जाता हैं, वह भाव निक्षेप है । जैसे इन्दन आदि क्रिया में परिणत होनेवाला भावेन्द्र है । ___ जो भवन को प्राप्त होता है वह 'भाव' है । किसी पर्याय के रूप में परिणत होना 'भवन' है । जो पर्याय अनुभव में आ रहा है उससे युक्त वस्तु का स्वरूप जब प्रतिपादित किया जाता है तब 'भावनिक्षेप' होता है। जो इन्दन करता है वह इन्द्र है - इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो जीव स्वर्ग लोक में शासन करता है वह भावेन्द्र हैं । वस्तु का जो असाधारण स्वरूप है, वह उसका 'स्वतत्त्व' है । असाधारण स्वरूप से परिणाम प्राप्त अर्थ 'भाव' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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