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________________ ५४६ / ११६९ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-५ है। मृत् पिंड का घट के आकार में परिणाम हो तो उसको घट कहा जाता है। मध्य में गोल हो, ग्रीवा का भाग संकुचित और गोल हो और ऊपर की ओर हो तो घट के रूप में परिणाम होने के कारण घट व्यवहार होता है । इस प्रकार के आकार में परिणत मृत् पिंडरूप अर्थ भावघट है । अर्थ का वर्तमान काल में जो पर्याय है वह भाव है । यह इस प्रकार फलित होता है । नामादि निक्षेपो का परस्पर भेद: शंका : ननु भाववर्जितानां नामादीनां कः प्रतिविशेषस्त्रिष्वपि वृत्त्यविशेषात् १, तथाहि नाम तावन्नामवति पदार्थ स्थापनायां द्रव्ये चाविशेषेण वर्तते भावार्थशून्यत्वं स्थापनारूपमपि त्रिष्वपि समानम्, त्रिष्वपि भावस्याभावात् । द्रव्यमपि नामस्थापनाद्रव्येषु वर्तते एव द्रव्यस्येव नामस्थापनाकरणात् द्रव्यस्य द्रव्ये सुतरां वृत्तेश्चेति विरुद्धधर्माध्यासाभावान्नैषां भेदो युक्त इति चेत्, (जैनतर्क भाषा ) अर्थ : शंका करते हैं भाव को छोड़कर नाम आदि का परस्पर क्या भेद है ? तीनों में वृत्ति का अर्थात् स्थिति का कोई भेद नहीं है । इस में हेतु यह है । नाम नामवान् पदार्थ में, स्थापना में और द्रव्य में समान रूप से रहता है। का स्वरूप भाव अर्थ से रहित होना है, वह भी तीनों में समान है कारण तीनों में भाव का अभाव है। द्रव्य भी नाम, स्थापना और द्रव्य में विद्यमान है। द्रव्य का ही नाम रखा जाता है और द्रव्य की ही स्थापना की जाती है, द्रव्य की द्रव्य में वृत्ति बिना क्लेश से होती ही है, विरोधी धर्मो का सम्बन्ध न होने से इनका भेद युक्त नहीं है । शंकाकार का अभिप्राय यह है कि, अर्थ का वर्तमान काल में जो पर्याय है वह भाव का असाधारण स्वरूप है। यह नाम, स्थापना अथवा द्रव्य में नहीं है परन्तु नाम आदि परस्पर में पाये जाते हैं । इन तीनों का जो असाधारण धर्म है वह परस्पर विरोधी नहीं है । जिन के धर्म परस्पर विरोधी होते हैं, वे अर्थ भिन्न होते हैं । शीत स्पर्श और उष्ण स्पर्श परस्पर विरोधी हैं । शीत स्पर्श जल का और उष्ण स्पर्श तेज का धर्म है इस कारण जल और तेज भिन्न हैं । यदि नाम आदि परस्पर विरोधी होते तो इनमें आधार - आधेयभाव नहीं होना चाहिए, परन्तु यह इनमें है । जिस अर्थ का कोई भी नाम उसमें नाम की सत्ता है। जो स्वर्ग का अधिपति नहीं है, केवल नाम से इन्द्र है वह इन्द्र नाम से कहा जाता है । जिस इन्द्र की स्थापना की गई हो उसको भी लोग इन्द्र कहते हैं । जो किसी काल में अर्थात् आगामी भव में इन्द्र होनेवाला हो उसको भी इन्द्र कहा जाता है। जो अभी युवराज है, कुछ काल के पीछे राजा बननेवाला है, उसको पहले से ही राजा कहने लगते हैं । यदि नाम का स्वरूप, स्थापना और द्रव्य का विरोधी होता तो स्थापना और द्रव्य के साथ नाम का संबंध न होता । भावेन्द्र में भी यद्यपि नाम का संबंध विद्यमान है, परन्तु भावेन्द्र का जो वर्तमान पर्याय है वह नाम, स्थापना और द्रव्य में नहीं है । स्वर्ग पर शासन भावेन्द्र का असाधारण स्वरूप है । वह नाम, स्थापना और द्रव्य इन्द्रों में नहीं पाया जाता, इसलिए भावेन्द्र का नार्मेंद्र आदि से भेद है। जिस पर्याय के कारण द्रव्य भाव होता है, वह पर्याय नाम, स्थापना और द्रव्य में नहीं है । इसलिए भाव और नाम आदि का भेद है। नाम का स्वरूप जिस प्रकार नाम में है, इस प्रकार स्थापना और द्रव्य में भी है इसलिए इसमें भेद नहीं हो सकता । भाव स्वरूप अर्थ से रहित होना यह स्थापना का असाधारण स्वरूप है, यह भी नाम आदि तीनों में है । अन्य कोई इस प्रकार का धर्म नहीं है, जो स्थापना में हो, पर नाम और द्रव्य में न हो । द्रव्य भी जहाँ नाम, स्थापना और द्रव्य है वहाँ विद्यमान रहता है । द्रव्य हो तो उसका नाम धरा जा सकता है । स्थापना भी द्रव्य की होती है जो द्रव्य है वह द्रव्य है ही, वहाँ द्रव्य के होने में कोई संदेह नहीं हो सकता । मृत् पिंड को घट द्रव्य कहा जाता है । वह द्रव्य रूप से विद्यमान है । जो द्रव्य है उसमें द्रव्य को अविद्यमान नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार का कोई स्वरूप इन तीनों में नहीं है, जो इन में से एक में हो और अन्य में न हो । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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