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________________ ५४४ /११६७ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-५ नाम के आचार्य अपने साधुओं के परिवार के साथ वहाँ पहुँचे। उसकी परीक्षा के लिए साधुओं ने प्रश्रवण भूमि में अंगारे डाल दिये । जब अतिथि साधु बाहर निकले और पैरों से आघात होने के कारण “किस-किस" शब्द हुआ तो वे मिथ्या दुष्कृत कहकर लौटे गये । उन्हों ने वहाँ पर दिन में देखने की इच्छा से चिन्हकर दिए पर आचार्य रुद्रदेव कोयलों को मसलकर ध्वनि उत्पन्न करता हुआ चला गया और कहता गया प्रमाणों से यहाँ जीव नहीं सिद्ध होते तो भी जिनेन्द्रों ने जन्तुओं का निर्देश किया है । यह सब सुनकर आचार्य श्री विजयसेनसूरि ने रुद्रदेव के शिष्यों से कहा - यह अभव्य है, आप इसको छोड दो । आचार्य रुद्रदेव ही अंगारमर्दक नाम से प्रसिद्ध हआ । भाव चारित्र से रहित होने के कारण वह मोक्ष को न प्राप्त कर सका और संसार में ही रहा । अब अन्य दृष्टिकोण से 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग बताते है । ___ क्वचिदनुपयोगेऽपि, यथाऽनाभोगेनेहपरलोकाद्यशंसालक्षणेनाविधिना च भक्त्यापि क्रियमाणा जिनपूजादि क्रिया द्रव्यक्रियैव, अनुपयुक्तक्रियायाः साक्षान्मोक्षाङ्गत्वाभावात् । भक्त्याऽविधिनापि क्रियमाणा सा पारम्पर्येण मोक्षाङ्गत्वापेक्षया द्रव्यतामश्नुते, भक्तिगुणेनाविधिदोषस्य निरनुबन्धीकृतत्वादित्याचार्याः । (जैनतर्क भाषा) अर्थ : कहीं पर उपयोग के अभाव में भी द्रव्य शब्द का प्रयोग होता है । जैसे उचित ध्यान के बिना और इहलोक परलोक आदि की इच्छारूप विरुद्ध विधि से भक्ति के साथ भी की जाती हुई जिनपूजा आदि क्रिया द्रव्य क्रिया है । उपयोग रहित क्रिया साक्षात् मोक्ष का कारण नहीं हैं। भक्ति के साथ विधि के विरुद्ध की जाती हुई वह जिनपूजा आदि क्रिया परम्परा से मोक्ष का साधन होने के कारण द्रव्य हो जाती है । आचार्य कहते हैं - भक्तिरूप गुण विरुद्ध विधि के दोष को अनुबन्ध से रहित कर देता है । कहने का आशय यह है कि, कर्म से फल को प्राप्त करने के लिये कर्म करने की विधि का ज्ञान और एकाग्र चित्त आवश्यक कारण है। जो विधि को नहीं जानता वह प्रतिकूल रीति से भी कार्य करने लगता है । उस दशा में जो फल प्राप्त करना चाहते हैं, उस फल की प्राप्ति नहीं होती । इतना ही नहीं अनिष्ट फल प्राप्त हो जाता है । आयुर्वेद के शास्त्रों में - तीव्र रोगों के नाश के लिए पारे की भस्म का प्रयोग बहुत उत्तम कहा गया है । चिकित्सा के ग्रन्थ कहते हैं, पारा स्वयं मर जाता है परन्तु रोगी को जीवित कर देता है । जो मनुष्य पारे की भस्म को उचित रीति से नहीं बनाता उसके पारे का परिपाक उचित परिणाम में नहीं होता । पूर्णरूप में अपक्व पारे की भस्म यदि रोगी खा ले तो रोग का नाश तो दूर रहा प्राणों का संकट हो जायेगा। अज्ञान के कारण प्रतिकूल क्रिया तो है पर अनिष्ट, दुःख फल देती है इसलिए प्रधान रूप से क्रिया कहने योग्य नहीं है। अयोग्य क्रिया अप्रधान क्रिया है । अप्रधान का पारिभाषिक नाम द्रव्य है । इस प्रकार की क्रिया द्रव्य क्रिया कही जाती है। __विधि के ज्ञान के समान फल प्राप्त करने के लिए काम करने में चित्त की एकाग्रता भी आवश्यक है । क्रिया के करने में ध्यान न देकर अन्य विषय में ध्यान देने से भी अनिष्ट फल प्राप्त हो जाता है, अथवा जिस उत्कृष्ट फल के प्राप्त करने की इच्छा होती है वह न मिलकर न्यून कोटि का फल मिलता है । एक मनुष्य चलकर किसी नियत स्थान पर नियत समय पर पहुँचना चाहता है । यदि चलते-चलते किसी अन्य विषय में ध्यान चला जाय तो पथिक जहाँ नहीं जाना चाहता वहाँ पहुँच जायेगा । यदि अनुकूल दिशा में भी रहेगा तो नियत समय पर वांछित स्थान को न प्राप्तकर सकेगा । एक ग्राम वा नगर से अन्य ग्राम वा नगर में जाने के लिए आजकल मोटर और रेल का उपयोग होता है। यदि यात्री चित्त के एकाग्र न होने से मोटर अथवा रेल के प्राप्ति स्थान पर जब पहुँचना चाहिए तब न पहुँच कर विलम्ब से पहुँचे तो गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के लिए पहली मोटर या रेल नहीं मिलेगी । कुछ समय के अनन्तर अन्य मोटर या रेल का आश्रय लेना पड़ेगा। इस कारण फल तो मिलेगा पर विलम्ब हो जायेगा । यदि पथिक ने किसी एक दिशा में दूर तक दो चार स्थानों में जाना हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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