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सप्तभंगी
५१७ / १९४०
द्वितीय भङ्ग में असत्त्व का और चतुर्थ में अवक्तव्य का प्रतिपादन है । दोनों को मिलाने से छठा भङ्ग प्रकट होता है। छट्ठे भङ्ग से जब ज्ञान उत्पन्न होता है तब किसी अपेक्षा से असत्त्व और किसी अपेक्षा से अवक्तव्यत्व प्रकाररूप में प्रतीत होता हैं । घट आदि धर्मी विशेष्यरूप से प्रतीत होता है, इस प्रकार के ज्ञान को उत्पन्न करना छठें भङ्ग का लक्षण है । तीसरे भङ्ग में क्रम सत्त्व और असत्त्व धर्मों का प्रकाशन होता है । चतुर्थ भङ्ग के द्वारा अवक्तव्यत्व का प्रकाशन होता है । जब किसी अपेक्षा से सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्म क्रम से प्रतीत होता हैं और अपेक्षा से अवक्तव्यत्व भी प्रतीत होता है तब सप्तम भङ्ग होता है । सप्तम भङ्ग में क्रम से सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्म प्रकार रूप से प्रतीत होते हैं । इसके कारण पञ्चम और छट्ठे भङ्ग से सप्तम भङ्ग का भेद है । पञ्चम भङ्ग में अपेक्षा से केवल और छट्ठे भङ्ग में केवल असत्त्व प्रकाररूप से प्रतीत होता । सप्तम भङ्ग से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसमें अपेक्षा के द्वारा सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्म प्रकार रूप से प्रतीत होते हैं ।
• एकान्त सप्तभंगी स्याद्वाद की समर्थक नहीं है :
यहाँ उल्लेखनीय है कि, पूर्वनिर्दिष्ट सप्तभंगी में एकान्त विकल्प करने से वे असम्यक् बन जाते है । इसलिए एकान्त विकल्प से सर्जित सप्तभंगी स्याद्वावाद की समर्थक बन सकती नहीं है । यह बात को स्पष्ट करते हुए प्रमाणनयतत्त्वाल ग्रंथ में सूत्र द्वारा क्रमशः बताते है कि,
विधिप्रधान एव ध्वनिरिति न साधु ।।४ - १२ । । ('शब्दः प्राधान्येन विधिमेवमभिधत्ते न निषेधम्' इति कथनं न युक्तमित्यर्थः ।।२२।।)
शब्द प्रधानता से विधि ही बताता है, निषेध को नहीं, यह कथन युक्त नहीं है, क्योंकि,
निषेधस्य तस्मादप्रतिपत्तिप्रसक्ते: ।।४-२३ ।। (शब्दो यदि एकान्ते विधिबोधक एव भवेत् तर्हि तस्माद् निषेधस्य ज्ञानं कदापि न स्यात्, निषेधज्ञानं तु अनुभवसिद्धं, तस्मान्न विधिबोधक एव शब्दः किन्तु निषेधबोधकोऽपीति भावः ।। २३ । ।)
यदि शब्द एकान्त से विधिबोधक ही होगा, तो उससे निषेध का ज्ञान कदापि नहीं होगा । लेकिन निषेध ज्ञान तो अनुभवसिद्ध है । इस लिए शब्द मात्र विधिबोधक नहीं है, परन्तु निषेधबोधक भी है ही । अब आगे शंका का समाधान करते हुए बताते है कि,
अप्राधान्येनैव ध्वनिस्तमभिधत्त इत्यप्यसारम् ।।४-२४ ।। (ननु भवतु शब्दो निषेधबोधकोऽपि तथाऽपि अप्रधान तमभिधत्ते इति चेत्, तदप्यसारम् ।।२४।।)
शंका : शब्द चाहे निषेध बोधक भी हो, लेकिन शब्द अप्रधानता से निषेध का कथन करता है ।
समाधान: तुम्हारी यह बात असार है । क्योंकि,
क्वचित् कदाचित् कथञ्चित् प्राधान्येनाप्रतिपन्नस्य तस्याप्राधान्यानुपपत्तेः । । ४ - २५ ।। (निषेधस्य कुत्रचित् प्राधान्येन भानाभावेऽन्यत्राप्राधान्येन भानं न भवितुमर्हति तस्मात् शब्दः कुत्रचित् प्राधान्येनापि निषेधमभिधत्ते इत्यङ्गीकरणीयम्
।।२५।।)
(तुम्हारी बात असत्य हैं क्योंकि) यदि निषेध का किसी स्थल पे प्रधानता से भाव नहीं होता है, तो अन्य स्थल पे इसका अप्रधानता से भान होने के लिए शक्य नहीं बनेगा । इसलिए शब्द किसी स्थल पे प्रधानता से निषेध का कथन करता है, ऐसा स्वीकारना चाहिए ।
इस प्रकार प्रथम भंग की एकान्त प्ररूपणा का खंडन करके अब द्वितीय भंग का एकान्त निदर्शन दूषित करते है
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