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________________ ५१८ / ११४१ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट- ४ निषेधप्रधान एव शब्द इत्यपि प्रागुक्तन्यायादपास्तम् ।।४ - २६ ।। (शब्दो यदि प्रधानभावेन निषेधमेवाभिदध्यात् तर्हि विधिबोधको न स्यात्, अप्रधानभावेन विधि बोधयतीति चेत्, कुत्रचित् प्रधान-भावेन बोधकत्वमन्तराऽन्यत्राप्रधानभावेन बोधकत्वासम्भवात्, तस्माद् निषेधप्रधान एव शब्दः इति एकान्तोऽपि न समीचीन इति भावः । । २६ । । ) यदि शब्द प्रधानता से निषेध का ही कथन करेगा, तो वह विधिबोधक नहीं होगा । " शब्द अप्रधान भाव से विधि का बोध करता है" ऐसा कहोंगे, तो वह योग्य नहीं है । क्योंकि, किसी स्थल पे प्रधानभाव से बोधक होने बिना अन्य स्थल पे अप्रधानभाव से बोधक बनना संभवित नहीं है । इसलिए 'शब्द निषेधप्रधान ही है' ऐसा एकान्त भी समीचीन नहीं है । अब तृतीय भंग के एकान्त का खंडन करते क्रमादुभयप्रधान एवायमित्यपि न साधीयः इत्याकारकं क्रमार्पितोभयमेवाभिधत्ते इत्यपि न साधु हुए कहते हैं कि, ।।४ - २७ ।। ( अयं शब्दः 'स्यादस्त्येव घटः स्यान्नास्त्येव घटः ' ।। २७ ।। ) यह शब्द " स्यादस्त्येव घटः स्यान्नास्त्येव घटः" इत्याकारक क्रम से विधि-निषेध उभय प्रधान ही है, ऐसा कथन भी समीचीन नहीं है । इस बात अब दृढ करते है - अस्य विधि-निषेधान्यतरप्रधानत्वानुभवस्याप्यबाध्यमानत्वात् ।।४-२८ ।। (अस्य शब्दस्य विधिप्राधान्येन निषेधप्राधान्येन च स्वातन्त्र्येणानुभूयमानत्वात्, 'क्रमादुभयप्रधान एवायम्' इति तृतीयभङ्गैकान्तोऽपि न कान्तः ।। २८ ।। ) शब्द विधि की प्रधानता से और निषेध की प्रधानता से स्वतंत्रतया अनुभव में आता है । इसलिए " शब्द क्रम से प्रधान ही है" ऐसा तृतीय एकान्त भंग भी सुंदर नहीं है । अब चतुर्थ भंग के एकान्त का खंडन करते हुए कहते है कि, युगपद्विधि-निषेधात्मनोऽर्थस्यावाचक एवासाविति वचो न चतुरस्रम् ।।४-२९।। (असौ शब्दो विधिरूपमर्थं निषेधरूपमर्थं च युगपत्प्राधान्येन प्रतिपादयितुं न समर्थ इत्यर्थकः 'स्यादवक्तव्यमेव' इति चतुर्थभङ्गैकान्तोऽपि न रमणीयः ।। २९ । । ) यह शब्द विधिरूप अर्थ और निषेधरूप अर्थ को युगपत् प्रधानता से प्रतिपादन करने में समर्थ नहीं है, इत्याकारक अर्थ को बतानेवाला स्यादवक्तव्यमेव यह एकांत चतुर्थ भंग भी सुंदर नहीं है । एकांत चतुर्थ भंग रमणीय किस कारण से नहीं है, वह बताते है - तस्याऽवक्तव्यशब्देनाप्यवाच्यत्वप्रसङ्गात् ।।४-३० ।। (अयमर्थः - चतुर्थभङ्गैकान्ते हि शब्दस्याऽवक्तव्यशब्देनाऽप्यवाच्यत्वं स्यात्, तस्माच्चतुर्थभङ्गैकान्तोऽपि न युक्तः ।। ३० ।। ) एकांत चतुर्थ भंग में शब्द का अव्यक्तव्य शब्द के द्वारा भी अवाच्य हो जाता है । इसलिए एकांत चतुर्थ भंग रमणीय । अब पंचमभंग के एकान्त का खंडन करते हुए कहते है कि नहीं विध्यात्मनोऽर्थस्य वाचकः सन्नुभयात्मनो युगपदवाचक एव स इत्येकान्तोऽपि न कान्तः ।।४-३१।। निषेधात्मनः सह द्वयात्मनश्चार्थस्य वाचकत्वावाचकत्वाभ्यामपि शब्दस्य प्रतीयमानत्वात् ।।४-३२ ।। ('स्यादस्ति चावक्तव्यश्चेतिभङ्गस्वरूप एव शब्द:' इत्येकान्तोऽपि न युक्त इति ।। ३१ । । ) Jain Education International - 'स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च' इति षष्ठभङ्गे निषेधात्मनोऽर्थस्य वाचकत्वेन सह युगपत् प्रधानभावेन विधि-निषेधात्मनोऽर्थस्यावाचकश्च शब्दः प्रतीयते तस्मात् पञ्चमभङ्गेकान्तोऽपि न समीचीनः ।। ३२ ।। " शब्द स्यादस्ति चावक्तव्यः इत्याकारक भंग स्वरूप ही है ।" ऐसा एकान्त भी योग्य नहीं है । क्योंकि, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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