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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-४ सत् और असत् शब्द का प्रयोग समास में अथवा वाक्य में क्रम से ही हो सकता है । इस दशा में यदि सत् शब्द सत्त्व और असत्त्व को एक काल में कहे तो अपने वाच्य अर्थ सत्त्व के समान असत्त्व को भी सत्रूप में प्रकाशित करेगा । यदि असत् शब्द सत्त्व और असत्त्व को एक काल में कहे तो अपने वाच्य अर्थ असत्त्व के समान सत्त्व को भी असत्त्व रूप में प्रकाशित करेगा । वस्तुतः सत् असत् का और असत् सत् का वाचक नहीं होता, अतः एक शब्द एक काल में परस्पर विरोधी भाव और अभाव का वाचक नहीं हो सकता । अब बाकी के तीन भंग का स्वरूप बताते है• पंचम, षष्ठ एवं सप्तम भंग का स्वरूप :
स्यादस्त्येव स्यादक्तव्यमेवेति विधिकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च पञ्चमः ।(7) स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च षष्ठ:(8) । स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिनिषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च सप्तम इति(9) ।
अर्थ : सब पदार्थ किसी अपेक्षा से हैं और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य हैं, इस प्रकार विधि की विवक्षा से और एक साथ विधि और निषेध की विवक्षा से पांचवाँ भङ्ग होता है । किसी अपेक्षा से सब पदार्थ नहीं हैं और कथञ्चित् अवक्तव्य हैं, इस प्रकार निषेध की तथा एक काल में विधि-निषेध की विवक्षा से छट्ठा भङ्ग होता है । किसी अपेक्षा से सब पदार्थ है, किसी अपेक्षा से नहीं है और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य है, इस प्रकार क्रम से विधि-निषेध की और एक साथ विधिनिषेध की विवक्षा से सातवाँ भङ्ग होता है । ___ यहाँ पर कहने का आशय यह है कि, अपेक्षा से अर्थ के सत्त्व और असत्त्व का निरूपण करनेवाले प्रथम और द्वितीय भङ्ग मूलभूत हैं । भाव और अभावरूप दो धर्मों की प्रतीति प्रधानरूप से कोई शब्द नहीं करा सकता इसलिये अवक्तव्य भङ्ग प्रकट होता है। एक काल में दो धर्मों की प्रधानरूप से कहने की इच्छा अवक्तव्य भङ्ग के प्रकट होने में कारण है । आद्य दो भङ्गो के साथ अवक्तव्य भङ्ग का विविध रीति से संयोग करने पर अन्य भङ्ग बन जाते हैं । इनमें अवक्तव्य भङ्ग को कुछ लोग तृतीय स्थान देते हैं तथा विधि और निषेध का क्रम से प्रतिपादन करनेवाले भङ्ग को चतुर्थ स्थान देते हैं । जब एक धर्मी में चतुर्थ भङ्ग के द्वारा प्रतिपादित होनेवाले अवक्तव्यत्व को प्रथम भङ्ग के द्वारा प्रतिपाद्य सत्त्व के साथ कहना चाहते हैं तब पञ्चम भङ्ग प्रवृत्त होता है । स्व द्रव्य आदि की अपेक्षा से सत्त्व का अलग निरूपण करना चाहते हैं इसके साथ ही स्वद्रव्य आदि की अपेक्षा से सत्त्व को और पर-द्रव्य आदि की अपेक्षा से असत्त्व को प्रधानरूप में एक साथ कहना चाहते हैं - तब पञ्चम भङ्ग होता है । कथञ्चित् सत्त्व और कथञ्चित् अवक्तव्यत्व इन दो धर्मों को प्रकाररूप से और घट आदि एक धर्मी को विशेष्यरूप से प्रकाशित करना पञ्चम भङ्ग का असाधारण स्वरूप है । "स्यात् अस्ति एव स्यात् अवक्तव्यमेव" यह पञ्चम भङ्ग का आकार है ।। 7. अथ पञ्चमभङ्गोल्लेखमुपदर्शयन्ति - स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च पञ्चमः ।।४-१९।।
स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षयाऽस्तित्वे सति अस्तित्व-नास्तित्वाभ्यां यौगपद्येन वक्तुमशक्यं सर्वं वस्तु, इति स्यादस्तित्व-विशिष्टस्यादवक्तव्यमेवेति
पञ्चमो भङ्गः ।।१९।। (प्र.न.तत्त्वा) 8. अथ षष्ठभङ्गोल्लेखं प्रकटयन्ति- स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधकल्पनया, युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च षष्ठः ।।४-२०।।
परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया नास्तित्वे सति अस्तित्व नास्तित्वाभ्यां-योगपद्येन वक्तुमशक्यं सर्वं वस्तु, इति स्यान्नास्तित्वविशिष्टस्यादवक्तव्यमेवेति
षष्ठो भङ्गः ।। (प्र.न.तत्त्वा.) 9. स्यादस्त्येव स्यात्रास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति क्रमतो विधि-निषेधकल्पनया, युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च सप्तम इति
॥४-२१ ।। क्रमतः स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षयाऽस्तित्वे सति परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया नास्तित्वे च सति यौगपद्येनास्तित्व-नास्तित्वाभ्यां वक्तुमशक्यं सर्वं वस्तु, इति सप्तमो भङ्गः ।।२१।। (प्र.न.तत्त्वा.)
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