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________________ सप्तभंगी ५१५ / ११३८ में रहनेवाले घटत्व पटत्व के समान उनमें विरोध नहीं है । परन्तु असाधारण धर्म के कारण उनमें भी विरोध है । रूपत्व और रसत्व आदि धर्मों के कारण रूप रस आदि धर्म भी परस्पर विरोधी हैं। रूपत्व केवल रूप में है और रसत्व केवल रस में है । रूपत्व के द्वारा रूप का और रसत्व के द्वारा रस का जब ज्ञान होगा तब एक घट अथवा फल आदि धर्मी में रहने पर भी रूप और रस का ज्ञान क्रम से होता है । सत्त्व और असत्त्व रूप रस आदि के समान घट और फल आदि धर्मियों में एक साथ रहते हैं । परन्तु रूपत्व जिस प्रकार रसत्व से भिन्न है इस प्रकार घट आदि एक अर्थ में रहनेवाले सत्त्व और असत्त्व भी सत्त्व भाव और असत्त्व भाव से भिन्न हैं । सत्त्व भाव केवल सत्त्व में और असत्त्वभाव केवल असत्त्व में है इसलिये एक धर्मी में रहने पर भी सत्त्व और असत्त्व का जब अपने अपने सत्त्व भाव और असत्त्वभावरूप असाधारण स्वरूप से ज्ञान होगा, तब क्रम से ही होगा । परन्तु जब भिन्न विरोधी धर्मों में समान रूप से रहनेवाले किसी एक सामान्य धर्म के द्वारा ज्ञान होगा तो एक साथ भी हो सकेगा। रूप, रस आदि गुणों में गुणत्व एक सामान्य धर्म है । गुणत्व रूप से रूप रस आदि समस्त गुणों का एक साथ ज्ञान हो सकता है । गुण पद गुणत्वरूप से रूप आदि समस्त गुणों का एक काल में प्रतिपादन कर सकता है। सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्मो में सत्त्व और असत्त्व का अन्यतरत्व सामान्य धर्म है। दोनों में से एक को अन्यतर कहते हैं । अन्यतरत्व दोनों में है । इसी प्रकार ज्ञेयत्व वाच्यत्व आदि साधारण धर्म भी सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्मों में हैं । इन धर्मों के द्वारा भी साङ्केतिक पद सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्मों का ज्ञान करा सकता है और वह ज्ञान एक का में हो सकता है। इस प्रकार एक पद से वाच्य होने के कारण घट आदि अर्थ किसी अपेक्षा से अवक्तव्य नहीं हो सकता। इसका उत्तर यह है कि अन्यतरत्व ज्ञेयत्व आदि रूप से एक काल में सत्त्व और असत्त्व का बोध हो सकता है, पर असाधारण रूप से कोई भी पद दोनों धर्मों का बोध नहीं करा सकता । सत्त्व का असाधारण धर्म सत्त्वभाव है और असत्त्व का असाधारण धर्म असत्त्वभाव है । इन दोनों असाधारण धर्मों के साथ दोनों का बोध एक काल में एक पद के द्वारा नहीं हो सकता । गुण पद जब रूप रस आदि का गुणत्व रूप से ज्ञान कराता है तब रूपत्व रसत्व आदि असाधारण रूपों से नहीं कराता । घट आदि को जब कथंचित् अवक्तव्य कहा जाता है तब असाधारण स्वरूप के साथ प्रधान वा अप्रधानरूप में सत्त्व और असत्त्व का कथन नहीं हो सकता यह भाव होता है, अतः इस अपेक्षा से घट आदि अर्थ अवक्तव्य है । कुछ 'लोग सत् और असत् शब्द के समास द्वारा दोनों धर्मों का एक काल में कथन कहते हैं । उनका वचन भी युक्त नहीं है । समास से युक्त वचन भी इस प्रकार के दोनों धर्मों का प्रधानरूप से अथवा गौणरूप से निरूपण नहीं कर सकता। समासों में बहुब्रीहि समास है, जिस में अन्य पद का अर्थ प्रधान होता है वह भी इस विषय में समर्थ नहीं हो सकता। यहाँ पर दोनों धर्मों की प्रधानभाव से विवक्षा है । अव्ययीभाव में पूर्वपद के अर्थ की प्रधानता होती है, अतः वह भी दोनों धर्मों का प्रधानरूप से प्रतिपादन नहीं कर सकता । द्वन्द्व समास में यद्यपि दोनों पद प्रधान होते है, तो भी यहाँ पर द्रव्य का बोधक द्वन्द्व उपयोगी नहीं है । यहाँ पर दो द्रव्यों का नहीं किन्तु दो धर्मों का प्रतिपादन है । जो गुणों का बोधक होता है, वह भी द्रव्य में रहनेवाले गुणों का प्रकाशन करता है । वह दो प्रधान धर्मों का प्रतिपादन नहीं कर सकता । तत्पुरुष समास उत्तर पद के अर्थ का प्रधानरूप से प्रकाशन करता है, इसलिये वह भी दो धर्मों के प्रधानरूप से प्रतिपादन में असमर्थ है। द्विगु समास में पूर्वपद संख्यावाची होता है इसलिये उसका यहाँ अवसर नहीं है । कर्मधारय समास गुणी द्रव्य को कहता है, इसलिये दो धर्म प्रधानरूप से उसके विषय नहीं हो सकते । जो समास का अर्थ है वही वाक्य का अर्थ होता है । समास के असमर्थ होने के कारण वाक्य भी दो प्रधान धर्मों का असाधारण स्वरूप के साथ प्रतिपादन नहीं कर सकता, अतः इस अपेक्षा से अर्थ अवक्तव्य है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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