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________________ ५१४ / ११३७ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-४ __अथवा नाम आदि का जो प्रकार नियत है उसमें जो आकार आदि है उसके रूप से घट है । नाम आदि में जो आकार आदि नहीं है उसके द्वारा वह घट नहीं है । इन दोनों प्रकारों से एक काल में कहने की शक्ति किसी पद में नहीं है - अतः अवक्तव्य है । जो आकार आदि विद्यमान है उसके कारण जिस प्रकार घट है इस प्रकार यदि अविद्यमान आकार से भी घट हो, तो एक ही घट समस्त घटों के रूप में हो जाना चाहिये । यदि विद्यमान आकार से भी घट न हो, तो घट का अर्थी मनुष्य, वृक्ष में जिस प्रकार प्रवृत्ति नहीं करता इस प्रकार घट में भी प्रवृत्ति न करे । इन दोनों में से कोई भी एकान्त प्रमाणों से सिद्ध नहीं है - इसलिये अवक्तव्य का यह तीसरा प्रकार है । अन्य अनेक प्रकार भी अवक्तव्य के हो सकते हैं । अर्थ के अवक्तव्य होने में दो कारण है - जो मुख्य हैं । दो प्रकारों से वस्तु एक काल में एकान्तरूप से सम्बन्ध नहीं रखती। एकान्त रूप में यह वस्तु का अत्यन्त अभाव अवक्तव्य होने का एक कारण है । विरोधी दो धर्मों को प्रधान अथवा अप्रधान रूप से कहने में पद असमर्थ है यह दूसरा कारण है । अब विरोधपरिहारपूर्वक पूर्वोक्त बात को स्पष्ट करते हुए बताते है कि, शतृशानशौ सदित्यादौ साङ्केतिकपदेनापि क्रमेणार्थद्वयबोधनात् । अन्यतरत्वादिना कथञ्चिदुभयबोधनेऽपि प्रातिस्विकरूपेणैकपदादुभयबोधस्य ब्रह्मणापि दुरुपपादत्वात् । अर्थ : शतृ और शानश् सत् है इत्यादि स्थल में साङ्केतिक पद से भी क्रम के साथ दोनों अर्थों का बोध होता है । अन्यतरत्व आदि के द्वारा किसी प्रकार दोनों का ज्ञान हो जाय तो भी प्रत्येक में होनेवाले नियतरूप से दोनों का ज्ञान ब्रह्मा भी नहीं करा सकता। कहने का आशय यह है कि, 'प्रतिस्वं भवति' इस व्युत्पत्ति के द्वारा प्रातिस्विक पद का अर्थ है - प्रत्येक में रहनेवाला असाधारण स्वरूप। विरोधी दो अर्थों को एक काल में प्रधानता अथवा अप्रधानता के साथ कहने में कोई भी पद समर्थ नहीं है । इस हेतु पर आक्षेप करते हैं कि, संकेत के द्वारा पद अर्थ का बोध कराता है । जिस प्रकार अविरोधी अर्थ में सङ्केत किया जा सकता है इसी प्रकार विरोधी अर्थ में भी संकेत हो सकता है । संकेत होने पर विधि और निषेध दोनों का ज्ञान एक पद करा सकता है । व्याकरण में शतृ और शानश् दो विरोधी प्रत्यय हैं । इन दोनों के लिए 'सत्' पद का संकेत है, सत् पद से दोनों का ज्ञान एक साथ होता है । 'सत्' पद के समान कोई सांकेतिक पद विधि और निषेध का ज्ञान करा सकता है । इस आक्षेप के उत्तर में कहते हैं कि संकेत कराने से पद दो अर्थों का बोध करा सकता है । परन्तु क्रम के साथ, एक काल में नहीं । जिस भी पद का विधि और निषेध दोनों के लिये संकेत किया जायेगा वह क्रम से ही ज्ञान करा सकेगा, एक काल में नहीं। इस पर फिर शंका की जाती है - विरोधी अर्थों में विरोधी धर्म रहते हैं, इन धर्मों के द्वारा बोध दोनों अर्थों का एक पद से हो, तो क्रम अवश्य होता है । घट में घटत्व है उसका विरोधी पटत्व पट में है । यदि कोई भी पद संकेत के कारण घटत्व और पटत्व धर्मों के द्वारा बोध करावे तो क्रम से ही करा सकता है । विरोधी धर्मों का ज्ञान क्रम से ही हो सकता है । शतृ और शानश् भी दो विरोधी प्रत्यय हैं । शतृपन और शानश्पन दो विरोधी धर्म हैं । 'सत्' पद इन दो धर्मों के द्वारा ज्ञान कराता है, इसलिये ज्ञान क्रम से होता है । सत्त्व और असत्त्व भी दो विरोधी धर्म हैं । घटत्व और पटत्व के स्वरूप से सत्त्व और असत्त्व का स्वरूप भिन्न है परन्तु विरोध की दृष्टि से भेद नहीं है । घटत्व और पटत्व के धर्मी भिन्न हैं। किसी एक धर्मी में घटत्व और पटत्व नहीं रहते । परन्तु सत्त्व और असत्त्व यहाँ पर भिन्न धर्मियों में नहीं है, एक ही धर्मी में हैं । एक धर्मी में होने पर भी उनका स्वभाव परस्पर विरोधी है । एक घट में रूप रस गन्ध आदि धर्म हैं । भिन्न धर्मियों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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