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________________ सप्तभंगी ५१३/११३६ चतुर्थ भङ्ग : अब चतुर्थ विकल्प का स्वरूप बताते हुए कहते है कि, स्यादवक्तव्यमेवेति युगपत्प्राधान्येन विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः, एकेन पदेन युगपदुभयोर्वक्तुमशक्यत्वात्।।०) अर्थ : किसी अपेक्षा से सब पदार्थ अवक्तव्य ही हैं । इस प्रकार एक काल में प्रधानरूप से विधि और निषेध की विवक्षा के कारण चतुर्थ भङ्ग होता है । एक पद एक काल में विधि और निषेध का कथन नहीं कर सकता, इसलिये अर्थ अपेक्षा से अवक्तव्य है । यहाँ कहने का मतलब यह है कि, असत्त्व को गौण करके मुख्य रूप से सत्त्व का प्रतिपादन करना हो तो प्रथम भङ्ग होता है । इसके विपरीतरूप में सत्त्व को गौणरूप से और असत्त्व को मुख्यरूप से कहना हो, तो द्वितीय भङ्ग होता है । सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्मों का मुख्यरूप से निरूपण करना हो तो कोई भी वचन इसके लिये समर्थ नहीं है, अत: अर्थ अवाच्य है। अर्थ में किसी धर्म का निरूपण एक काल में मुख्य अथवा गौणरूप से हो सकता है । दोनों परस्पर विरोधी धर्मों को मुख्यरूप से वा गौणरूप से नहीं कहा जा सकता । दोनों धर्म एक अर्थ में एक काल में गौण अथवा मुख्य नहीं हो सकते। अर्थ में इस प्रकार का स्वरूप असंभव है, इसलिये उसका वाचक पद भी नहीं है । वाचक से रहित होने के कारण अर्थ अवक्तव्य हैं। ___ अवक्तव्य भङ्ग का निरूपण अनेक प्रकार से हो सकता है । अर्थ में स्वरूप की अपेक्षा से एकान्त सत्त्व ही नहीं है और पर-रूप की अपेक्षा से एकान्त असत्त्व ही नहीं है । केवल सत्त्व अथवा असत्त्व को मानकर किसी शब्द से अर्थ का कथन नहीं हो सकता, अतः अर्थ अवाच्य है । केवल सत्त्व अथवा केवल असत्त्व सर्वथा अविद्यमान है इसलिये उसका कोई वाचक नहीं हो सकता। __यदि अर्थ सब प्रकार से सत् ही हो, तो उसकी किसी अन्य अर्थ से व्यावृत्ति नहीं हो सकेगी । वह महासामान्य सत्ता के समान सब स्थानों पर रहेगा, इसलिये विशेषरूप में प्रतीत न हो सकेगा । यदि घट सर्वथा सत् हो, तो सभी स्थानों पर सत्रूप में ही प्रतीत होना चाहिये । घटरूप में उसकी प्रतीति नहीं होनी चाहिये । घट जब प्रतीत होता है - तब वृक्ष आदि अर्थों से भिन्न आकार में ही प्रतीत होता है, इसलिये घट-घटरूप से ही सत् है । इसी प्रकार यदि घट आदि अर्थ असत्रूप हो, तो वृक्ष आदि के रूप से जिस प्रकार अविद्यमान है इस प्रकार अपने रूप से भी अविद्यमान होने के कारण शशशृंग के समान तच्छ हो जाना चाहिये, एकान्त रूप से केवल सत्त्वात्मक और असत्त्वात्मक रूप में घट आदि अवाच्य है। यह अवक्तव्य का पहला प्रकार है । अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से जब अर्थों का भेद किया जाता है, तब जिस रूप में विवक्षा चाहते हैं और जिस रूप में विवक्षा नहीं चाहते हैं - उन दो रूपों से प्रथम और द्वितीय भङ्ग होते हैं । इन दोनों प्रकारों से यदि एक काल में कहने की इच्छा हो, तो अर्थ किसी भी शब्द से नहीं कहा जा सकता । इसलिये अवाच्य है । जिस रूप से विवक्षा नहीं है उस रूप से भी यदि घट हो, तो नियत नाम और स्थापना आदि का व्यवहार नहीं होना चाहिये । इसी प्रकार जिस रूप से कहना चाहते है उस रूप से भी यदि घट न हो तो घट का व्यवहार ही नहीं होना चाहिये । इन दोनों पक्षों में से यदि केवल एक पक्ष को स्वीकार किया जाय तो अर्थ का स्वरूप नहीं रहता, इसलिये अवाच्य हो जाता है - यह अवक्तव्य का दूसरा प्रकार है। 6. इदानीं चतुर्थभङ्गोल्लेखमाविर्भावयन्ति- स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद्विधि-निषेधकल्पनया चतुर्थः ॥४-१८।। यदा अस्तित्व-नास्तित्वधर्मी युगपत्प्रधानभावेन विवक्षितौ, तदा तादृशयुगपद्धर्मद्वयबोधकशब्दाभावादवक्तव्यमेवेति चतुर्थो भङ्गः ।।१८।। (प्र.न.तत्त्वा .) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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