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________________ ५१२ / ११३५ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-४ यदि असत्त्व कल्पना से सिद्ध हो तो बौद्ध निर्दोष हेतु के जिन तीन रूपों को स्वीकार करते हैं वे भी उपपन्न नहीं होंगे। बौद्धों के अनुसार हेतु के लिए पक्ष में सत्त्व, सपक्ष में सत्त्व और विपक्ष में असत्त्व ये तीन रूप होने चाहिये । यदि असत्त्व कल्पना मूलक हो, तो विपक्ष में असत्त्व भी काल्पनिक हो जायेगा । उस दशा में हेत का निर्दोष स्वरूप न रह सकेगा। अत: सत्त्व और असत्त्व वस्त के दोनों धर्म तात्त्विक हैं । तृतीय भंग : अब तृतीय भंग का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि - स्यादस्त्येव स्यानास्त्येवेति प्राधान्येन क्रमिकविधिनिषेधकल्पनया तृतीयः ।(5) अर्थ : किसी अपेक्षा से प्रत्येक अर्थ सत् है और किसी अपेक्षा से असत् है, इस प्रकार प्रधानरूप से क्रम के साथ विधि और निषेध के निरूपण द्वारा तृतीय भङ्ग होता है । यहाँ आशय यह है कि, क्रम के साथ विधि और निषेध इन दोनों की विवक्षा हो, तो तृतीय भंग होता है । प्रथम भङ्ग के द्वारा स्व-द्रव्य आदि की अपेक्षा से केवल सत्त्व का प्रधानरूप से निरूपण होता है । द्वितीय भङ्ग के द्वारा पर द्रव्य आदि की अपेक्षा से असत्त्व का प्रधानरूप में निरूपण होता है । सत्त्व और असत्त्व दोनों का क्रम के साथ प्रधानरूप से निरूपण तृतीय भङ्ग में होता है । प्रथम भङ्ग अथवा द्वितीय भङ्ग दोनों का प्रधानरूप से निरूपण नहीं करता, यही तृतीय भङ्ग का प्रथम और द्वितीय भङ्ग से भेद है । महोपाध्याय श्री यशोविजयजी म. अन्य रीति से भी प्रथम और द्वितीय भङ्ग से तृतीय भङ्ग के भेद को प्रकट करते हैं। प्रथम भङ्ग से विधि का मुख्यरूप से भान होता है । द्वितीय भङ्ग से निषेध का बोध मुख्य रूप से होता है । प्रथम भङ्ग के अनन्तर द्वितीय भङ्ग है इसलिये विधि और निषेध का क्रम से ज्ञान दोनों भङ्ग कर देते हैं । तृतीय भङ्ग भी क्रम के साथ विधि और निषेध के ज्ञान को उत्पन्न करता है । इसलिये तृतीय भङ्ग का प्रथम और द्वितीय भङ्ग से कोई भेद नहीं है, इस आशंका का निराकरण करने के लिए वे कहते हैं कि तृतीय भङ्ग से जो बोध होता है वह ‘एकत्र द्वयम्' इस रीति से होता है । एक विशेष्य में दो अर्थो का प्रकाररूप से जो ज्ञान होता है वह 'एक में दो' नाम से कहा जाता है । 'चैत्र दण्डी है और कुंडली है' यह वाक्य इसका उदाहरण है । चैत्र दण्डवाला है और कुण्डलवाला है यह ज्ञान इस वाक्य से उत्पन्न होता है । इस ज्ञान में चैत्र विशेष्य है दण्ड और कुण्डल प्रकार हैं। इसी प्रकार तृतीय भङ्ग में एक ही ज्ञान है, जिसमें विधि भी प्रकार है और निषेध भी प्रकार है । एक वस्तु विशेष्य है । प्रथम भङ्ग के अनन्तर जब द्वितीय भङ्ग से बोध होता है, तब क्रम से विधि और निषेध का ज्ञान-तो होता है, परन्त वह ज्ञान एक नहीं होता । वे दो ज्ञान होते हैं, जो क्रम से होते हैं । तृतीय भङ्ग के द्वारा होनेवाला ज्ञान एक ही है, उस एक ज्ञान में विधि भी प्रकार है और निषेध भी प्रकार है । प्रथम और द्वितीय भङ्ग से उत्पन्न होनेवाले दो ज्ञानों की अपेक्षा एक विलक्षण ज्ञान को उत्पन्न करने के कारण तृतीय भङ्ग भिन्न है। ___ यहाँ ध्यान रहे कि - तृतीय भङ्ग से उत्पन्न ज्ञान में जो विधि और निषेध प्रतीत होते हैं, उनमें परस्पर विशेषण-विशेष्य भाव नहीं है । यदि इन दोनों में विशेषण-विशेष्य भाव हो तो विशेषण गौण हो जायेगा और विशेष्य मुख्य हो जायेगा । क्रम से दोनों की प्रधानता इष्ट है वह नहीं रहेगी । इसलिए तृतीय भङ्ग एक ही अर्थ को विधि और निषेध से विलक्षण रूप में प्रकाशित करता है । इस बोध में विधि और निषेध दोनों समान रूप से प्रकार हैं और घट आदि अर्थ विशेष्य हैं। 5. अथ तृतीय भङ्गमुल्लेखतो व्यक्तीकुर्वन्ति- स्यादस्त्येव नास्त्येवेति क्रमतो विधि-निषेधकल्पनया तृतीयः ।।४-१७।। यदा वस्तुगतास्तित्व-नास्तित्वधर्मो क्रमेण विवक्षितौ तदा 'स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव' इति तृतीयो भङ्गः ।।१७।। (प्र.न.तत्त्वा.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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