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________________ सप्तभंगी ५११ / ११३४ से अर्थ : यदि कहो असत्त्व कल्पना से प्रतीत होता है तो यह युक्त नहीं, सत्त्व के समान असत्त्व का भी स्वतन्त्ररूप अनुभव होता है, यदि असत्त्व केवल कल्पना द्वारा सिद्ध हो, तो सत्य रूप से विपक्ष में असत्त्व के न होने के कारण हेतु के तीन रूपों के नष्ट होने की आपत्ति होगी । कहने का आशय यह है कि, बौद्ध लोग कहते हैं कि सत्त्व धर्म वस्तु का सत्य है, असत्त्व सत्य नहीं है, किन्तु कल्पना के द्वारा प्रतीत होता है। काल्पनिक धर्म वस्तु का स्वरूप नहीं हो सकता। मरुस्थल में कल्पना के द्वारा जल प्रतीत होता है। वास्तव में मरुभूमि के साथ जल का सम्बन्ध नहीं होता । असत्त्व भी कल्पना से प्रतीत होता है, इसलिये वास्तव में वस्तु असत् नहीं हो सकती। यह कथन युक्त नहीं है। बिना किसी बाधा के जिस प्रकार सत्त्व का अनुभव होता है, इस प्रकार असत्त्व का भी अनुभव होता है । यदि कल्पना के ही कारण असत्त्व की प्रतीति हो, तो प्रत्येक अर्थ अन्य अर्थों के रूप मे प्रतीत होना चाहिए। पर देश-काल आदि के द्वारा घट का असत्त्व यदि वास्तव न हो, तो घट अन्य देश में और अन्य काल में भी प्रतीत होना चाहिये । वह जिस प्रकार पार्थिवरूप में प्रतीत होता है इस प्रकार जलीय रूप में अथवा अग्नि आदि के रूप में भी प्रतीत होना चाहिये । एक अर्थ को समस्त वस्तुओं के रूप में हो जाना चाहिये । मरुस्थल में दूर से ग्रीष्म ऋतु में जल दिखाई देता है परन्तु पास जाने पर जल नहीं मिलता और उसको पीकर प्यास नहीं दूर होती। इस बाधक ज्ञान के कारण मरुस्थल में जल का ज्ञान कल्पना से उत्पन्न सिद्ध होता है परन्तु पर द्रव्य, देश, काल आदि के रूप में असत्रूप के ज्ञान को बाधित करनेवाला कोई ज्ञान नहीं है इसलिए वस्तु का असत्रूप कल्पना से सिद्ध नहीं है। असत्रूप के सत्य नहीं काल्पनिक होने में आपत्ति है, इसलिये असतूरूप भी सत्य है। इस पर बौद्ध कहते हैं पर द्रव्य, क्षेत्र आदि के रूप में जो असत्त्व प्रतीत होता है वह स्व द्रव्य आदि की अपेक्षा से प्रतीत होनेवाले सत्त्व से भिन्न नहीं है, सत्त्व ही पर की अपेक्षा असत्त्वरूप में प्रतीत हो रहा है, इसलिये यदि पर रूप से असत्त्व सत्य न हो तो भी घट आदि अर्थ पट वृक्ष आदि के रूप में प्रतीत नहीं होगा । असत्त्व यदि सत्य होता तो उसके न होने पर घट आदि के वृक्ष आदि रूप में प्रतीत होने की आपत्ति दी जा सकती थी । परन्तु पर रूप से असत्त्व स्वरूप से सत्त्व की अपेक्षा भिन्न नहीं है। यह भी युक्त नहीं है। इस रूप से यदि स्वरूप का सत्त्व पर रूप से असत्त्व हो तो सत्त्व का अपना रूप न होने से पर रूप से असत्त्व ही प्रधान हो जायेगा । इस दशा में घट आदि अर्थ सर्वथा असत् रूप हो जाना चाहिये। इस दशा में स्वरूप से सत्त्व का अपना अलग स्वरूप नहीं है वह पर रूप से असत्त्व में समा गया है इसलिये अर्थ को असत् हो जाना चाहिये । यदि आप पर रूप से असत्त्व को प्रधानता न देकर स्वरूप से स्वसत्त्व में ही पर रूप से असत्त्व का समावेश करें तो पर रूप से असत्त्व के न होने के कारण प्रत्येक अर्थ अन्य सब अर्थों के रूप में हो जाना चाहिये । यदि आप कहें, कोई भी पदार्थ अपने कारणों के द्वारा नियत रूप से उत्पन्न होता है । उसका नियत स्वरूप पर रूप से असत्त्व की अपेक्षा नहीं करता, तो भी आपका कथन युक्त नहीं है । जब तक पर रूप से वस्तु असत् न हो तब तक कारणों द्वारा उसकी नियत रूप से उत्पत्ति नहीं हो सकती । सत् और असत् रूप से वस्तु की प्रतीति के बिना वस्तु के अपने स्वरूप का अनुभव नहीं हो सकता । असत् रूप में ज्ञान को मिथ्या भी नहीं कह सकते । सत् रूप में ज्ञान जिस प्रकार प्रतीत होता है इसी प्रकार असत् रूप में भी। इस अवस्था में सत् रूप को सत्य और असत् रूप को मिथ्या नहीं कहा जा सकता अतः स्व सत्त्व ही पर रूप से असत्त्व नहीं है। स्व द्रव्य आदि की अपेक्षा से सत्त्व का ज्ञान और पर द्रव्य आदि की अपेक्षा से असत्त्व का ज्ञान होता है । यह कारणों का भेद भी स्वरूप से सत्त्व और पर रूप से असत्त्व को भिन्न सिद्ध करता है और एकान्त रूप से अभेद का निषेध करता है । - Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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