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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
५०१/११२४ __बौद्ध, द्रव्य और पर्याय के प्रमाण सिद्ध होने पर भी पर्यायों को मान लेता है और अनुगामी द्रव्य का निषेध करता है। उसका कहना है कि, कोई अर्थ अनुगामी नहीं है । यदि तीन कालों में द्रव्य की स्थिति हो, तो जब किसी अर्थ का प्रत्यक्ष होता है तब नाश के काल तक रहनेवाला वस्तु का जो स्वरूप है वह देखते ही स्पष्ट रूप से एक क्षण में प्रतीत हो जाना चाहिए। परन्तु जिस क्षण में देखते हैं उस क्षण में अर्थ का वही स्वरूप प्रत्यक्ष होता है जो उस क्षण में विद्यमान होता है। अतीत क्षणों में जो अर्थ के जो स्वरूप थे और अनागत क्षणों में जो स्वरूप होंगे उन सब का प्रत्यक्ष नहीं होता । एक क्षण में जन्म से लेकर नाश तक के पर्यायों का और उन पर्यायों में रहनेवाले अनुगामी द्रव्य का प्रत्यक्ष जिस प्रकार असंभव है इस प्रकार अनेक क्षणों में भी क्रम से प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । ज्ञान पर्यायों का प्रकाशक है । ज्ञान स्वयं क्षणिक है वह अपनी उत्पत्ति से पूर्व काल के और अपने विनाश के अनन्तर होनेवाले पर्यायों को प्रकाशित नहीं कर सकता । पर्यायों का अनुभव न होने पर उनके साथ अभेद से रहनेवाले द्रव्य का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । ___ परन्तु यह कथन युक्त नहीं है । ज्ञान भी सर्वथा क्षणिक नहीं है । ज्ञान का पर्याय नष्ट होता है, वह सर्वथा नष्ट नहीं होता, उसका कुछ भाग रह जाता है । ज्ञान के उत्पाद और विनाशवाले पर्यायों में ज्ञानात्मक द्रव्य स्थिर रहता है, यही स्थिर ज्ञान आत्मा है और वह अर्थों के उत्पाद और नाश के समान अनुगत रूप को भी स्थिर रूप में प्रत्यक्ष कर सकता है । तीन काल के पर्यायों का अभेद होने पर भी जब द्रव्य का प्रत्यक्ष होता है तब सभी का प्रत्यक्ष नहीं होता । इसका कारण इन्द्रियों का सामर्थ्य है । जो वर्तमान काल में है उसीका ज्ञान इन्द्रियों से हो सकता है । इन्द्रियों का स्वभाव इसी प्रकार का है, जिन पर्यायों को इन्द्रिय नहीं जान सकते उनके साथ द्रव्य का अभेद यदि प्रत्यक्ष न हो, तो वह अविद्यमान नहीं सिद्ध हो सकता । नेत्र से रूप का दर्शन होता है । जब फूल का रूप दिखाई देता है । तब स्पर्श और गन्ध को होने पर भी नेत्र नहीं जान सकते । इतने से फूल में जब रूप है तब स्पर्श और गन्ध का अभाव नहीं सिद्ध होता । यदि अनुगामी द्रव्य न हो तो प्रथम पर्याय के नष्ट होने पर अन्य पर्याय नहीं उत्पन्न होना चाहिए । उपादान बीज के न होने पर अंकुर पर्याय नहीं उत्पन्न होता । पर्याय का अभेद द्रव्य के प्रत्यक्ष का साधन नहीं है । प्रत्यक्ष के साधन इन्द्रिय हैं और ये अपने स्वभाव के अनुसार अर्थ का प्रत्यक्ष करते हैं । स्मरण और प्रत्यभिज्ञान की सहायता से आत्मा भूत और भावी पर्यायों को और उनसे अभिन्न द्रव्यों को जान लेता है ।
यहाँ ध्यान रखना कि, द्रव्य का अनुगामी अक्षणिक स्वरूप काल की अपेक्षा से प्रतीत होता है । काल इस स्वरूप को उत्पन्न नहीं करता । अर्थ, बौद्ध मत के अनुसार क्षणिक है, पर वर्तमानकाल अर्थ में क्षणिकता को उत्पन्न नहीं करता । यदि काल वर्तमान अर्थ में क्षणिकता को उत्पन्न करता हो, तो वर्तमानकाल की क्षणिकता को उत्पन्न करने के लिए किसी अन्य काल को कारण मानना पडेगा । इस प्रकार अनवस्था हो जायेगी । इससे बचने के लिए अर्थ के यथार्थ स्वभाव का आश्रय लेना होगा । जिस प्रकार अर्थ स्वभाव से जिस क्षण में उत्पन्न होता है, वह क्षण पूर्ण और उत्तर भाव से रहित होती है । क्षण के साथ संबंध होने से अर्थ क्षणिक कहा जाता है, इसी प्रकार अनेक क्षणों के साथ अर्थ का संबंध है, इसके कारण अर्थ अक्षणिक कहा जाता है । तीनों काल अक्षणिकता को उत्पन्न नहीं करते ।
अर्थों में अनुगम से युक्त द्रव्य और अनुगम से रहित पर्याय का अनुभव होने पर भी एकान्तवाद का आश्रय लेकर बौद्ध क्षणिक पर्यायों के ज्ञान को सत्य मानता है और जो एक अनुगत द्रव्य प्रतीत होता है उसके ज्ञान को भ्रम कहता है। दीप की ज्वाला जलती हुई चिरकाल तक एक प्रतीत होती है, परन्तु एक ज्वाला चिरकाल तक स्थिर नहीं रह सकती। जब तक तेल और बत्ती रहती है तब तक ज्वाला जलती है । तेल का नाश क्षण-क्षण में प्रत्यक्ष होता है, इससे ज्वाला का जन्म प्रतिक्षण सिद्ध होता है । जो ज्वाला प्रथम क्षण में उत्पन्न हुई उसके समान अन्य ज्वाला दूसरे
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