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षड् समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जेनदर्शन में नयवाद क्षण में उत्पन्न हुई, निरंतर समान ज्वालाओं के उत्पन्न होने के कारण वही एक ज्वाला जल रही है, जो पहले जलती थी, इस प्रकार का भ्रम उत्पन्न हो जाता है, ज्वाला से भिन्न कोई अनुगामी द्रव्य नहीं है । इसलिए क्षणिक पर्याय केवल है ।
परन्तु बौद्धमत की यह मान्यता युक्त नहीं है । जितनी ज्वालाएँ उत्पन्न होती हैं, उन सब में प्रकाशात्मक उष्ण तेज अनुगत रूप से प्रतीत होता है । ज्वाला की एकता भ्रान्त है, पर तेज का अनुगत एक स्वरूप भ्रम से नहीं प्रतीत हो रहा है । यदि प्रथम क्षण में ज्वाला के पर्याय के साथ तेज द्रव्य भी नष्ट हो जाय तो दूसरे ही क्षण में ज्वाला का नाश हो जाना चाहिए । अतः अनुगत तेज द्रव्य का प्रत्यक्ष एक ज्वाला के प्रत्यक्ष काल में भी सत्य है। जहाँ पर पट, पत्थर, लोहा आदि का स्थिर रूप में अनुभव होता है, वहाँ भी ज्वाला के दृष्टांत को लेकर केवल क्षणिक पर्यायों को मानना और स्थ द्रव्य का निषेध करना अयुक्त है । एकान्त रुप से क्षणिक पर्यायों को स्वीकार करने से बौद्ध मत ऋजुसूत्राभा है 1
शब्दाभास: कालादिभेदेनार्थभेदमेवाभ्युपगच्छन् शब्दाभास: (97), यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयः शब्दा भिन्नमेवार्थमभिदधति, भिन्नकालशब्दत्वात्तादृक् सिद्धान्यशब्दवदिति ।
अर्थ : काल आदि के भेद से अर्थ के भेद को ही माननेवाला और अभेद का निषेध करनेवाला शब्दाभास है । जैसे सुमेरु था, है, होगा इत्यादि शब्द भिन्न अर्थ को ही कहते हैं, भिन्न काल के वाचक शब्द होने से इस प्रकार के सिद्ध अन्य शब्दों के समान ।
एक अर्थ का तीन कालों के साथ संबंध रहता है, इसलिए काल का भेद होने पर भी अर्थ का सर्वथा भेद नहीं होता । जिस पर्याय का एक क्षण के साथ सम्बन्ध है, उसी पर्याय का अन्य क्षणों के साथ सम्बन्ध नहीं रह सकता। द्रव्य अनेक क्षणों के साथ भी सम्बन्ध रख सकता है। वह काल के भिन्न होने पर भी अभिन्न रहता है । इसी प्रकार वस्तु का स्वरूप काल के भेद में भी भिन्न और अभिन्न रहता है । इस तत्त्व की अपेक्षा करके शब्द कह लगता है, पूर्व काल में जो सुमेरु था, वह ही अब नहीं है। अब जो सुमेरु है, वह भूतकाल के सुमेरु से सर्वथा भिन्न है। जब कोई कहता है 'देवदत्त गया, यज्ञदत्त पढता है, विष्णुमित्र भोजन करेगा तब देवदत्त आदि अर्थ भिन्न होते हैं । भूतकाल की गमन क्रिया के साथ देवदत्त का सम्बन्ध है, वर्तमान काल की पठन क्रिया के साथ यज्ञदत्त का सम्बन्ध है, भावी काल की भोजन क्रिया के साथ विष्णुमित्र का सम्बन्ध है । यहाँ पर भिन्न कालों के साथ सम्बन्ध होने पर देवदत्त आदि अथों में भेद है। सुमेरु का भी जब भिन्न काल के साथ सम्बन्ध हो तो भेद मानना चाहिए। इस प्रकार एकान्तवाद का आश्रय लेकर शब्दनय काल भेद से जहाँ अर्थ एक है, वहाँ भी भेद मानने लगता है । देवदत्त आदि अर्थ भन्न उनका भिन्न काल की क्रियाओं के साथ सम्बन्ध था इस वस्तु की ओर उपेक्षा कर देता है। काल ही नहीं, कारक और लिङ्ग आदि का भेद होने पर भी शब्द नय जब एकान्त रूप से अर्थ के भेद को केवल मानने लगता है, तब शब्दाभास हो जाता है ।
97. एतदाभासं ब्रुवते तद्भेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभासः 11७-३४।। यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयो भिन्नकालाः शब्दा भिन्नमेवार्थमभिदधति, भिन्नकालशब्दत्वात् तादृक्सिद्धान्यशब्दवदित्यादिः ।।७-३५ ।। तद्भेदेन - कालादिभेदेन, तस्य- ध्वनेः, तमेव- अर्थभेदमेव, समर्थयमानस्तदाभासः शब्दनयाऽऽभास इत्यर्थः । अयं भावः योऽभिप्रायः कालादिभेदेन शब्दस्यार्थभेदमेव समर्थयते द्रव्यरूपतयाऽभेदं पुनः सर्वधा तिरस्करोति स शब्दनयाऽऽभासः ।।३४।। अत्रानुमाने बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयो भिन्नकालाः शब्दा भिन्नमेवार्थमभिदधति इति पक्षः । भिन्नकालशब्दत्वात्" इति हेतुः । तादृक्सिद्धान्यशब्दवद्” इति दृष्टान्तः । अनेनानुमानेन कालादिभेदेनार्थमेव स्वीकुर्वन् त्रिष्वपि कालेषु विद्यमानमप्यभिन्नं द्रव्यं सर्वथा तिरस्कुर्वन्नभिप्रायविशेषः शब्दनयाऽऽभासः ।। ३५ ।। (प्र.न. तत्त्वा.)
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