________________
४८८ / ११११
षड्. समु. भाग- २, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद देते हैं वे तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति में प्रतिबंधक हैं । मोक्ष का अभिलाषी पुरुष यम आदि कर्मों के द्वारा तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति में प्रतिबन्धक पाप को दूर करता है। इस प्रकार कर्म तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति में साक्षात् कारण नहीं है किन्तु परंपरा सम्बन्ध से कारण है, अतः तत्त्वज्ञान मोक्ष का प्रधान कारण है और कर्म गौण कारण है । प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति में प्रतिबन्धक का अभाव सहकारी कारण है । जो कारण प्रतिबन्धक को दूर करते हैं वे प्रतिबन्धक की निवृत्ति में मुख्य रूप से कारण होते हैं । प्रतिबन्धकों के नष्ट होने पर जो कार्य उत्पन्न होता है उसमें वे कारण नहीं होते । प्रतिबन्धक पाप के नष्ट होने पर तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है और फिर आत्मा मोक्ष को प्राप्त करता है, इसलिए ज्ञान ही मोक्ष का मुख्य कारण है, कर्म नहीं । श्री उदयनाचार्य आदि नैयायिको का यह मत है ।
जैन मत के अनुसार ज्ञान और कर्म मोक्ष के प्रति समान रूप से कारण हैं, गौण-मुख्य भाव से नहीं । दुःख के साधन का नाश मोक्ष है। दुःख के प्रधान साधन कर्म हैं जब तक कर्म का नाश नहीं होता तब तक मोक्ष नहीं हो सकता । क्षायिक केवलज्ञान और यथाख्यात चारित्र आदि कर्म (क्रिया) मोक्ष के कारण हैं । तत्त्वज्ञान. केवल मिथ्याज्ञान के नाश में कारण नहीं है किन्तु सकल कर्मों के नाश में अथवा समस्त कर्मों के नाश के साथ समनियत भाव से रहनेवाले क्षायिक सुख में कारण है, अतः कर्म और ज्ञान दोनों प्रधानरूप से कारण हैं । प्रतिबन्धक पापों की निवृत्ति में कर्मों को कारण मानकर यदि उनको गौण कहा जाय तो तत्त्वज्ञान को भी गौण कहना पडेगा । जिनको केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है वे भी जब तक भवोपग्राही चार कर्मों को नष्ट नहीं कर लेते तब तक उस क्षण मुक्ति को नहीं प्राप्त करते । मुक्ति के प्रतिबन्धक कर्मों को तत्त्वज्ञान भी नष्ट करता है । आगम, केवली के ज्ञान सहित वीर्य को कर्म के नाश में कारण कहते हैं इसलिए तत्त्वज्ञान भी कर्म नाश में कारण है । इस दशा में कर्मों की निवृत्ति करनेवाला तत्त्वज्ञान गौण कारण हो जायेगा और कर्म मोक्ष का प्रधान कारण हो जायेगा । आगम कहता है, वेदनीय कर्म को अत्यन्त अधिक जानकर और आयुक
थोडा जानकर कर्म का प्रतिलेखन करने के लिए केवली समुद्घात करते हैं । ज्ञान और संयम से युक्त तप मोक्ष का कारण है । यह तप जब बारबार किया जाता है तब क्रिया से शून्य निवृत्ति रहित ध्यान होता है यह ध्यान मोक्ष का कारण है इस ध्यान से भवोपग्राही कर्म नष्ट होते हैं । इस ध्यान में केवलज्ञान ही नहीं है कर्म भी है । चारित्र के साथ होने पर जिस प्रकार सम्यग् ज्ञान का सम्यक्त्व होता है इसी प्रकार ज्ञान के साथ होने पर चारित्र का सम्यक्त्व होता है । इस विषय में पंगु और अन्ध का दृष्टांत प्रसिद्ध है । पंगु ज्ञान वाला है और जहाँ जाना है वहाँ पहुँचाने वाले मार्ग को देखता भी है परन्तु चल नहीं सकता इसलिए वह अकेला नहीं पहुँच सकता । अन्धा पुरुष चल सकता है परन्तु मार्ग को न देखने के कारण विवक्षित स्थान पर नहीं पहुँच सकता । दोनों मिलकर परस्पर की सहायता से नियत स्थान पर पहुँच सकते हैं। ज्ञान और क्रिया भी दोनों मिलकर मोक्ष के कारण हैं । जब तक शैलेशी दशा में शुद्ध संयम नहीं प्रकट होता तब तक क्षायिक केवलज्ञान मोक्ष को नहीं दे सकता । अतः ज्ञान और कर्म दोनों मोक्ष के प्रधान कारण हैं, यह सिद्धान्तपक्ष है । नैगम आदि नय शुद्धज्ञान की अथवा शुद्धक्रिया की प्रधानता मानते हैं, ज्ञान आदि तीनों की नहीं, यह सिद्धान्त सेनयों का भेद है । इस विषय में अधिक स्पष्टतायें “नयोपदेश" ग्रंथ से जान लेना ।
नयों के न्यूनाधिक विषयों का विचार
कः पुनरत्र बहुविषयो नयः को वाऽल्पविषयः, इति चेत् (जैनतर्कभाषा) अर्थ - इन नयों में किस नय का विषय अधिक है और किस का न्यून है ? 1 पूर्वोक्त प्रश्न का संक्षिप्त में उत्तर देते हुए प्रमाणन तत्त्वालोक में कहा है कि, पूर्व: पूर्वो नयः प्रचुरगोचरः परः परस्तु परिमितविषयः
Jain Education International
:
।७ ४६ ।। (प्र.न. तत्त्वा.)
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org