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________________ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद ४८७/१११० का स्वरूप सम्यग दर्शन का विषय है इसलिए वह भी सम्यग दर्शन का कारण हो जायगा. प्रवृत्ति और निवृत्ति भी अर्थों में होती है इसलिए समस्त अर्थों को संयमी की प्रवृत्ति और निवृत्ति में भी कारण मानना पडेगा । इतना ही नहीं, परंपरा से उपकारक होने के कारण यदि ज्ञान और दर्शन को मोक्ष का कारण कहा जाय तो शरीर, माता, पिता, वस्त्र, भोजन, औषध आदि को भी मोक्ष का कारण मानना होगा । इस दशा में ज्ञान, दर्शन और चारित्र को ही मोक्ष का कारण नहीं कहा आदि तीन मोक्ष के लिए अत्यन्त निकटवर्ती कारण हैं इसलिए वे मोक्ष का उपाय कहे जाते हैं। देह आदि परंपरा से उनकी उत्पत्ति में सहायक हैं इसलिए उनको मोक्ष का उपाय न कहा जाय, तो चारित्र को ही मोक्ष का कारण कहना चाहिए । चारित्र के अनन्तर विना व्यवधान से मोक्ष होता है । नैगमादि तीन नयों का अभिप्राय बताते हुए कहते है कि, नैगमसंग्रहव्यवहारास्तु यद्यपि चारित्रश्रुतसम्यक्त्वानां त्रयाणामपि मोक्षकारणत्वमिच्छन्ति, तथापि व्यस्तानामेव, नतु समस्तानाम्, एतन्मते ज्ञानादित्रयादेव मोक्ष इत्यनियमात्, अन्यथा नयत्वहानिप्रसङ्गात्तु, समुदयवादस्य स्थितपक्षत्वादिति द्रष्टव्यम् । (जैनतर्क भाषा) ___ अर्थ : नैगम, संग्रह और व्यवहार यद्यपि चारित्र, श्रुतज्ञान और सम्यक्त्व, इन तीनों को मोक्ष का कारण मानते हैं, तो भी प्रत्येक को अलग अलग कारण कहते हैं, मिलित रूप में तीनों को कारण नहीं कहते । इन नयों के अनुसार ज्ञान आदि तीन से ही मोक्ष है, इस प्रकार का कोई नियम नहीं है । यदि ये तीनों को मोक्ष का कारण मान ले तो इन में नयभाव ही नहीं रहेगा । मिलितरूप में ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों मोक्ष के कारण हैं - यह सिद्धांतपक्ष है । ___ कहने का मतलब यह है कि, कुछ लोग भिन्न नयों के अनुसार तप आदि कर्मों को मोक्ष का कारण मानते हैं और कुछ लोग ज्ञान को। इनमें से जो लोग यम नियम आदि कर्मों को मोक्ष का कारण मानते हैं उनका कहना है कि - कर्म क्षणिक होते हैं । जिस काल में फल उत्पन्न होता है तब तक वे नहीं रहते । क्षणिक होने पर भी वे फल के उपादान कारण में इस प्रकार का संस्कार उत्पन्न करते हैं जो चिरकाल तक रह सकता है और नियत काल में फल उत्पन्न करता है, जो बीज बोता है उसको फल चिरकाल के बीत जाने पर मिलता है । किसान खेत में पानी देता है, सूर्य की धूप का उचित परिणाम में खेत के साथ सम्बन्ध हो इसका प्रबन्ध करता है । पवन का भी खेत के साथ सम्बन्ध होता रहता है । यदि जल तेज और पवन आदि की क्रिया न हो तो खेत में बीज अंकुर को उत्पन्न नहीं कर सकता । जल आदि के कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते है परन्तु वे भूमि में पडे बीज के अन्दर संस्कार को उत्पन्न करते है । वह संस्कार बीज में स्थिर हो जाता है और किसी काल में अंकुर को उत्पन्न करता है । यदि संस्कार की उत्पत्ति न हो तो जल आदि की क्रियाओं के नष्ट होने के कारण चिरकाल के पीछे अंकुर न उत्पन्न हो सके । जल आदि के कर्मों के समान यम नियम आदि कर्म भी क्षणिक हैं । कोई भी कर्म हो, भूतों में हो वा आत्मा में, क्षणिक ही होता है । यम आदि कर्म भी स्वयं नष्ट होकर आत्मा में फल को उत्पन्न करते हैं । आत्मा, शरीर, वाणी और मन से अच्छे बुरे कर्म करता है । कर्म अपने स्वभाव के अनुसार संस्कार उत्पन्न करके कभी शीघ्र और कभी देर से सुख-दुःख रूप फल देते हैं । अनेक जन्मों में सुख-दु:ख रूप फल को देनेवाले दान आदि कर्म जिस प्रकार धर्म और अधर्म नामक संस्कार को उत्पन्न करके फल देते हैं इसी प्रकार यम नियम आदि मोक्ष को उत्पन्न करने के लिए आत्मा में अदृष्ट संस्कार को उत्पन्न करते हैं । आत्मा का तत्त्वज्ञान आत्मा के विषय में मिथ्याज्ञान को दर करके मोक्ष को प्रकट करता हैं । इस प्रकार यम आदि कर्म अदृष्ट को उत्पन्न करके और तत्त्वज्ञान मिथ्याज्ञान का नाश करके मोक्ष का कारण हैं । दोनों समान रूप से प्रधान कारण हैं । श्री भास्कराचार्य आदि इस मत के माननेवाले हैं । जो लोग ज्ञान को मोक्ष का प्रधान कारण मानते हैं वे कहते हैं - आत्मा के विषय में मिथ्याज्ञान संसार का मूल कारण है । उसका नाश तत्त्वज्ञान से हो सकता है । धर्म मिथ्याज्ञान के विनाश में असमर्थ है । जो कर्म दुःखरूप फल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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