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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद नहीं होता । निश्चय नय को जो अर्थ स्वीकृत है उसको वह प्रधान रूप से मानता है । समस्त नय जिस अर्थ को मानते हैं यदि वह उसको अभिमत नहीं, तो वह उसका प्रतिपादन नहीं करता । निश्चय अपने मत के अनुसार अर्थ को प्रधान समझता है । सब न जो कुछ कहते हैं उसकी उपेक्षा भी निश्चय कर सकता है । अतः वह प्रमाण नहीं है । ज्ञाननय-क्रियानय : अब नय के ज्ञाननय-क्रियानय ऐसे दो प्रकार का प्रतिपादन करते है -
तथा ज्ञानमात्रप्राधान्याभ्युपगमपरा ज्ञाननयाः । क्रियामात्रप्राधान्याभ्युपगमपराश्च क्रियानया: । ( जैनतर्क
भाषा)
अर्थ : इसी प्रकार ज्ञान की ही प्रधानता को स्वीकार करनेवाले नय ज्ञाननय कहे जाते हैं । जो केवल क्रिया को प्रधान मानते हैं वे क्रियानय कहे जाते हैं ।
अब आध्यात्मिक दृष्टिकोण से दोंनो नय की मान्यता बताते हैं
तत्रर्जुसूत्रादयश्चत्वारो नयाश्चारित्रलक्षणायाः क्रियाया एव प्राधान्यमभ्युपगच्छन्ति, तस्या एव मोक्षं प्रत्यव्यवहितकारणत्वात् । (84) (जैनतर्कभाषा)
अर्थ : इसमें ऋजुसूत्र आदि चार नय चारित्ररूप क्रिया को ही प्रधान मानते हैं । क्योंकि, चारित्र रूप क्रिया ही मोक्ष का व्यवधान से रहित कारण है ।
कहने आशय यह है कि, जिस कारण के अनन्तर कार्य की उत्पत्ति हो उसको कार्य का कारण मानना चाहिए । जो कारण परम्परा सम्बन्ध से कार्य को उत्पन्न करते हैं वे प्रधान रूप से कारण नहीं हैं । क्षायिक परिपूर्ण ज्ञान और क्षायिक दर्शन के प्राप्त होने पर भी उसी क्षण में मोक्ष नहीं होता । सर्वसंवररूप चारित्र के मिलने पर ही मोक्ष होता है, इसलिए चारित्ररूप क्रिया को मोक्ष का कारण मानना चाहिए । यह मत ऋजुसूत्र आदि चार नयों का है । ज्ञान और दर्शन के बिना सर्वसंवररूप चारित्र की प्राप्ति नहीं होती । परन्तु इतने से उनको मोक्ष का कारण नहीं माना जा सकता, वे दोनों तो सर्वसंवर के कारण हैं। यदि उनको मोक्ष का कारण कहा जाय तो ज्ञान और दर्शन के अनन्तर ही मोक्ष हो जाना चाहिए। यदि सर्वसंवररूप चारित्र की प्राप्ति में सहायक होने से ज्ञान और दर्शन को चारित्र के समान ही कारण कहा जाय तो कोई भी अर्थ ऐसा नहीं रहेगा कि जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र का कारण न हो । ज्ञान की उत्पत्ति में विषय कारण है । संयमी ज्ञान का विषय समस्त संसार है इसलिए संसार के समस्त अर्थों को ज्ञान का कारण मानना पडेगा । जीव और अजीव
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84. क्रियानयः क्रियां ब्रूते ज्ञानं ज्ञाननयः पुनः । मोक्षस्य कारणं तत्र भूयस्यो युक्तयोर्द्वयोः । । १२८ । । विज्ञप्तिः फलदा पुंसां न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य फलसंवाददर्शनात् ।। १२९ ।। क्रियैव फलदा पुंसां न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ।। १३० ।। ज्ञानमेव शिवस्याध्वा मिथ्यासंस्कारनाशनात् । क्रियामात्रं त्वभव्यानामपि नो दुर्लभं भवेत् ।। १३१ ।। तंडुलस्य यथा वर्म यथा ताम्रस्य कालिका । नश्यति क्रिययामुत्र पुरुषस्य तथा मलः ।। १३२ ।। बठरश्च तपस्वी च शूरश्चाप्यकृतव्रणः । मद्यपा स्त्री सती चेति राजन्न श्रद्दधाम्यहम् ।। १३३ ।। ज्ञानवान् शीलहीनश्च त्यागवान् धनसंग्रही । गुणवान् भाग्यहीनश्च राजन्न श्रद्दधाम्यहम् । । १३४ ।। इति युक्तिवशात्प्राहुरुभयोस्तुल्यकक्षताम् । मंत्रेऽप्याह्वानं देवादेः क्रियायुग्ज्ञानमिष्टकृत् ।। १३५ ।। ज्ञानं तुर्ये गुणस्थाने क्षायोपशमिकं भवेत् । अपेक्षते फले षष्ठगुणस्थानजसंयमम् ।। १३६ ।। प्रायः संभवतः सर्वगतिषु ज्ञानदर्शने । तत्प्रमादो न कर्तव्यो ज्ञाने चारित्रवर्जिते ।। १३७ ।। क्षायिकं केवलज्ञानमपि मुक्तिं ददाति न । तावन्नाविर्भवेद्यावच्छैलेश्यां शुद्धसंयमः । ।१३८ । । व्यवहारे तपोज्ञानसंयमा मुक्तिहेतवः । एकः शब्दर्जुसूत्रेषु संयमो मोक्षकारणम् । । १३९ । । संग्रहस्तु नयः प्राह जीवो मुक्तः सदा शिवः । अनवाप्तिभ्रमात्कंठस्वर्णन्यायात् क्रिया पुनः । । १४० ।। अनन्तमर्जितं ज्ञानं त्यक्ताश्चानन्तविभ्रमाः । न चित्रं कलयाण्यात्मा हीनोऽभूदधिकोऽपि वा । । १४१ । । धावन्तोऽपि नयाः सर्वो स्युर्भावे कृतविश्रमाः । चारित्रगुणलीनः स्यादिति सर्वनाश्रितः ।। १४२ ।। (नयोपदेश)
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