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________________ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद ४८५/११०८ अर्पित-अनर्पित नय : अब नय के अर्पित और अनर्पित ऐसे दो भेद बताते है । तथा विशेषग्राहिणोऽर्पितनयाः सामान्यग्राहिणश्चानर्पित नयाः । तत्रानर्पितनयमते तुल्यमेवरूपं सर्वेषां सिद्धानां भगवताम् । अर्पितनयमते त्वेकद्वित्र्यादिसमयसिद्धाः स्वसमानसमयसिद्धेरैव तुल्या ।। (जैनतर्कभाषा:) अर्थ : इसी प्रकार विशेष का ग्रहण करनेवाले अर्पित नय कहे जाते हैं और सामान्य के ग्रहण करनेवाले नय अनर्पित नय कहे जाते हैं । अनर्पित नय के मत में सभी सिद्ध भगवानों का एक समान रूप है । अर्पित नय के मत में तो एक समय सिद्ध, द्विसमय सिद्ध और त्रिसमय सिद्ध अपने समान समय के सिद्धों के ही तुल्य हैं । ___ कहने का आशय यह है कि, अनर्पित नय केवल साधारण धर्म का ग्रहण करता है । इसलिए उसके अनुसार सभी सिद्धों का सामान्य रूप है । सिद्धों में परस्पर भेद होने पर भी सिद्धत्व साधारण धर्म है, उसके कारण समस्त सिद्ध समान हैं । विशेष के प्रकाशक अर्पित नय के अनुसार जितने एक समय सिद्ध हैं वे सब परस्पर समान हैं । उनमें एकसमयसिद्धत्व सामान्य धर्म है । यह सामान्य धर्म द्विसमय सिद्ध अथवा त्रिसमय सिद्ध आदि सिद्धों में नहीं है इसलिए विशेष है । इसके कारण एक समय सिद्धों की ही परस्पर समानता है । इसी प्रकार द्विसमय सिद्धों की द्विसमयसिद्धत्व रूप सामान्य धर्म के कारण परस्पर समानता है और त्रिसमय सिद्ध आदि के साथ समानता नहीं है । अन्य सिद्धों में भी इसी प्रकार की समानता समझ लेनी चाहिए । व्यवहारनय-निश्चयनय : अब नय के व्यवहार और निश्चय ऐसे दो प्रकार बताते हैं - तथा लोकप्रसिद्धार्थानुवादपरो व्यवहारनयः, यथा पञ्चस्वपि वर्णेषु भ्रमरे सत्सु श्यामो भ्रमर इति व्यपदेशः। तात्त्विकार्थाभ्युपगमपरस्तु निश्चयः, स पुनर्मन्यते पञ्चवर्णो भ्रमरः, बादरस्कन्धत्वेन तच्छरीरस्य पञ्चवर्णपुद्गलैर्निष्पन्नत्वात् शुक्लादीनां च न्यग्भूतत्वेनानुपलक्षणात् । (जैनतर्क भाषा) अर्थ : इसी प्रकार लोक में जो अर्थ प्रसिद्ध है उसके कहने में तत्पर नय व्यवहार नय कहा जाता है, जिस प्रकार भ्रमर में पांचों वर्णो के होने पर भी 'भ्रमर श्याम हैं' इस प्रकार का व्यवहार होता है । तात्विक अर्थ को स्वीकार करने में तत्पर निश्चय नय होता है । वह भ्रमर में पांचों वर्गों को स्वीकार करता है । बादर स्कंध होने के कारण उसका शरीर पांच वर्णो के पुद्गलों से उत्पन्न हुआ है, शुक्ल आदि वर्ण न्यून होने से देखने में नहीं आते । कहने का फलितार्थ यह है कि, लोक में जिस प्रकार व्यवहार होता है उसको लेकर व्यवहार नय वस्तु का प्रतिपादन करता है । भ्रमर को लोग श्याम कहते हैं, इसलिए व्यवहार नय भी उसको श्याम कहता है, परन्तु भ्रमर का शरीर स्थूल है इसलिए पुद्गलों से उत्पन्न है । पुद्गल में पांचों वर्ण हैं इसलिए भ्रमर के शरीर में भी पांचों वर्ण हैं । श्याम वर्ण के द्वारा अन्य वर्णो का अभिभव हो गया है इसलिए वे विद्यमान होने पर भी नहीं दिखाई देते । आकाश में नक्षत्र होते हैं पर दिन में सूर्य के प्रकाश से दब जाने के कारण नहीं दिखाई देते । दिन में नक्षत्रों के समान भ्रमर के शरीर में शुक्ल आदि वर्ण विद्यमान हैं। निश्चय नय युक्ति के द्वारा भ्रमर के शरीर को पांच वर्षों से युक्त समझता है । दूसरी दृष्टि से व्यवहारनिश्चय नय का स्वरूप बताते हैं अथवा एकनयमतार्थग्राही व्यवहारः, सर्व नयमतार्थग्राही च निश्चयः । न चैवं निश्चयस्य प्रमाणत्वेन नयत्वव्याघातः, सर्वनयमतस्यापि स्वार्थस्य तेन प्राधान्याभ्युपगमात् । (जैनतर्क भाषा) अर्थ : अथवा एक नय के अभिमत अर्थ को जो ग्रहण करता है वह व्यवहार नय है । समस्त नयों के द्वारा अभिमत अर्थ को जो स्वीकार करता है वह निश्चय नय है । इसके कारण निश्चय प्रमाण नहीं हो जाता और उसका नयभाव दूर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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