SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 516
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद ४८९/१११२ अर्थ : पूर्व पूर्व के नय के विषय प्रचुर है, उत्तर-उत्तर के नय के विषय परिमित है । अब क्रमशः नयों के विषय की अधिकता-अल्पता का विवेचन किया जाता है - सन्मात्रगोचरात्संग्रहात्तावन्नैगमो बहुविषयो भावाभावभूमिकत्वात् ।85) (जैनतर्कभाषा) अर्थ : संग्रह नय का विषय केवल सत् है और नैगम का विषय भाव और अभाव दोनों हैं । इसलिए नैगम, संग्रह की अपेक्षा अधिक विषयवाला है । कहने का मतलब यह है कि, अनेक धर्मों का गौण-मुख्य भाव से प्रतिपादन करनेवाला अभिप्राय नैगम है । इस लक्षण के अनुसार नैगम के जितने उदाहरण पहले दिये जा चुके हैं उन सब में केवल भावात्मक अर्थों का निरूपण है । किसी अभाव का प्रतिपादन नहीं है । नैगम का इससे भिन्न अन्य लक्षण इस प्रकार है । 'अनिष्पन्नार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः' (स्याद्वाद रत्नाकर परि. ७, सूत्र-१०) । जो अर्थ विद्यमान नहीं है उसके संकल्प को प्रकाशित करनेवाला अभिप्राय नैगम है । कुल्हाडा लेकर कोई पुरुष जा रहा हो और अन्य कोई उसको पूछे - 'किस लिए आप जा रहे हैं ?' तो वह उत्तर में कहता है - 'मैं प्रस्थक के लिए जा रहा हुँ ।' यहाँ पर प्रस्थक विद्यमान नहीं है, जानेवाला कुल्हाडे से लकडी को काटकर प्रस्थक की रचना करेगा इसलिए प्रस्थक शब्द का प्रयोग करता है । संकल्प के विषय विद्यमान और अविद्यमान दोनों प्रकार के अर्थ हो सकते हैं । यहाँ पर प्रस्थक अविद्यमान है और संकल्प का विषय है इसलिए यहाँ पर नैगम नय है । संग्रह नय जीव अजीव आदि जिन अर्थों का संग्रह करता है, वे सब भावात्मक होते हैं । इस प्रकार संग्रह का विषय केवल भाव है और नैगम के विषय-भाव और अभाव दोनों हैं, अत: नैगम का विषय संग्रह से अधिक है । इस वस्तु का निरूपण श्री वादिदे स्याद्वादरत्नाकर में दिया है । अब संग्रह और व्यवहार नय के विषय के बारे में बताते है - सद्विशेषप्रकाशकाद्-व्यवहारतः संग्रहः समस्तसत्समूहोपदर्शकत्वाद्वहुविषयः ।(86) (जैनतर्कभाषा). व्यवहार नय है और संग्रह समस्त सत् वस्तुओं के समूह का प्रकाशक है. इसलिए संग्रह का विषय व्यवहार से बहुत है । कहने का आशय यह है कि, व्यवहार नय जब किसी भाव के अवान्तर भेदों को प्रकाशित करता है तो नियत जाति के ही भेदों को प्रकाशित करता है । संग्रह नय किसी विशेष जाति के अर्थों को नहीं प्रकाशित करता किन्तु व्यापक सामान्य धर्म के अनुसार अधिक अर्थों का संग्रह करता है । पृथ्वीत्व सामान्य धर्म से ईंट, पत्थर, घट आदि का ज्ञान संग्रह नय के अनुसार है । यदि पाषाणत्व धर्म को लेकर समस्त पाषाणों का प्रतिपादन किया जाय तो पाषाणत्व के द्वारा घट आदि का संग्रह नहीं हो सकता । पृथिवीत्व के द्वारा ईंट पत्थर, घट आदि समस्त भेदों का प्रतिपादन है इसलिए उसका विषय अधिक है और वह संग्रह नय है । पाषाणत्व के द्वारा केवल पत्थरों को लिया जा सकता है, घट आदि को नहीं, इसलिए उसका विषय अल्प है और वह व्यवहार नय है । अब व्यवहार नय से ऋजसत्र नय के विषय अल्प है, वह बताते है, 85.नैगम एव संग्रहात्पूर्व इत्याहुः- सन्मात्रगोचरात् संग्रहाद् नैगमो भावाभावभूमिकत्वाद् भूमविषय: ।।७-४७।। संग्रहनयो हि सन्मात्रविषयत्वाद् भावावगायेव, नैगमस्तु भावाभावविषयत्वादुभयावगाहीति बहुविषयः ।।४७।। 86.संग्रहाद् व्यवहारो बहुविषय इति विपर्ययमपास्यन्ति - सद्विशेषप्रकाशकाद् व्यवहारतः संग्रहः समस्तसत्समूहोपदर्शकत्वाद् बहुविषयः ।।७-४८।। व्यवहारो हि कतिपयान् सत्त्वविशिष्टान् पदार्थान् प्रकाशयतीत्यल्पविषयः, संग्रहस्तु समस्तं सद्विशिष्टं वस्तु प्रकाशयतीति भूमविषयः ।।४८।। (प्र.न.तत्त्वा.) अर्थ : सत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy