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________________ ४५६ / १०७९ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद नैगमनय उपचार करके कथन करनेवाला नय । भावि में जो प्रस्थक बननेवाला है, उसका आरोप उसके पूर्वकालीन भिन्न-भिन्न कारणो में किया गया हैं । लकडी लेने जाते हुए, लकडी काटते हुए, लेकर आते हुए, छिलकर आकार बनाते हुए आदि तमाम पूर्व अवस्थाओं में उपचार करके प्रस्थक का विधान नैगमनय से किया गया हैं। यहाँ विशेष की प्रधानता हैं। दूसरा उदाहरण - घर का : कोई पूछे कि, 'आप कहाँ रहते हो ?' तो वह उत्तर देता है कि, 'लोक में रहता हुँ ।' लोक में भी कहाँ रहते हो ? तो कहते है कि, “मध्यलोक में" मध्यलोक में भी कहाँ रहते हो ? तो वह कहता है, 'जंबुद्वीप में ।' उसमें भी कहाँ रहते हो ? तो वह कहता है कि, 'भरतखंड में ।' उसमें भी कहाँ रहते हो ? तो वह कहता है कि, 'मध्यखंड में ।' उसमें भी कहाँ रहते हो ? तो वह कहता है कि, 'हिन्दुस्तान के गुजरात राज्य के अहमदाबाद शहेर में पालडी विस्तार में अमुक नंबर के बंगले में रहता हूँ और अंत में प्रश्नो का उपसंहार करते हुए कहता है कि, मेरा आत्मा जितने प्रदेशों में रहा हुआ है, उतने प्रदेशो में मैं रहता हूँ... ये सर्व प्रकार उत्तर नैगमनय की अपेक्षा से यथार्थ है । यहाँ पूर्व-पूर्व उत्तर वाक्य, उत्तर उत्तर वाक्यों की अपेक्षा से सामान्य धर्म का आश्रय करते हैं । - 1 तीसरा उदाहरण - गाँव का : कोई मुसाफिर सफर करते हुए काशी की ओर जाते हो, वहाँ वे काशी की सीमा में प्रवेश करे तब उसमें से कोई पूछे कि, 'हम कहाँ आ गये ?' तो जानकार कहता है कि 'हम काशी आ गये ।' थोडा आगे चले और काशी की बाहर के बाग-बगीचे में प्रवेश करे तब कोई पूछे कि, 'हम कहां आ गये ?' तो भी काशी में आये ऐसा जानकार कहेगा । इसी तरह से गाँव के किले के पास, चौराह में, महल्ले में, गली में, कोई निश्चित घर में, पूछा जाये तो, 'काशी में आये' का ही व मिलता हैं । इस प्रकार उपर बताये सर्व स्थान पे काशी, काशी ऐसा जो व्यवहार होता है, वह नैगमनय की अपेक्षा से हैं। जगत के तमाम व्यवहारो में नैगमनय की प्रधानता हैं । - अनेकांत व्यवस्था ( 27 ) ग्रंथ में एक महत्त्व का खुलासा किया है कि, इस नैगमनय में विशेषो से अन्य (भिन्न ) ही सामान्य हैं । क्योंकि, सामान्य अनुगतबुद्धि का कारण हैं । उसी तरह से विशेष भी सामान्य से भिन्न ही हैं। क्योंकि, विशेष व्यावृत्तिबुद्धि का कारण हैं । उसी तरह से आश्रय (वस्तु रूप आश्रय) से भी सामान्य भिन्न ही । अन्यथा आश्रय से सामान्य को भिन्न माना न जाये तो व्यक्ति की तरह साधारणता की अनुपपत्ति हो जायेगी । - नैगमनय के प्रकार :नैगमनय सामान्य और विशेष का अवलंबन लेकर प्रवर्तित होता होने से उसके दो प्रकार तत्त्वार्थ सूत्र के भाष्य में बताये हैं । (१) सामान्यग्राही नैगमनय और (२) विशेषग्राही नैगमनय ।(28) सामान्यग्राही यानी समग्रग्राही और विशेषग्राही यानी देशग्राही नैगमनय । 27. अस्मिन्नये विशेषेभ्योऽन्यदेव सामान्यम्, अनुवृत्तिबुद्धिहेतुत्वात् । सामान्याच्चान्ये एव विशेषाः, व्यावृत्तिबुद्धिहेतुत्वात् । एवमाश्रयादपि भिन्नमेव सामान्यं, अन्यथा व्यक्तिवत् साधारण्यानुपपत्तेः ।। 28. स च सामान्यविशेषावलम्बीत्येतद्दर्शयति - देशो विशेषः समग्रं सामान्यं अयं हि सामान्यग्राही जातिमेव पदार्थमाह-विशेषग्राही द्विकत्रिकादिकं, तथा च विचित्रप्रकारं नैगमनयमाश्रित्यानुस्मर्यते ।। " एकं द्विकं त्रिकं चाथ चतुष्कं पञ्चकं तथा । नामार्थ इति सर्वेऽपि पक्षाः शास्त्रे निरुपिताः || १ || " निगमेषु येऽभिहिताः शब्दास्तेषामर्थः शब्दार्थपरिज्ञानं च देशसमग्रग्राही नैगमः । (तत्त्वा. सू. ३५ ( भाष्य ) ] स सामान्यविशेषावलम्बीत्येतद् दर्शयतिदेशसमग्रग्राहीति (श्रीसिद्धसेनीयटीका) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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