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________________ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद ४५५/१०७८ होता है। कोई बार विशेष धर्म मुख्य होता है और कोई बार सामान्य धर्म मुख्य होता हैं । अथवा जिस नय के वस्तु के जानने के एक नहीं, परन्तु अनेक मार्ग हैं, उस नय को नैगम नय कहा जाता है । उपरांत नैगमनय अतीतकालीन, वर्तमानकालीन, भविष्यकालीन, उपयोगी और निरुपयोगी ऐसी तमाम अवस्थाओं में रही हुई वस्तु को वस्तु के रूप में स्वीकार करता है । नैगमनय की मान्यता... श्री विनयविजयोपाध्यायविरचित नयकर्णिका में नैगमनय की मान्यता बताते हुए कहा है कि, "नैगमो मन्यते वस्तु तदेतदुभयात्मकं । निर्विशेषं न सामान्यं विशेषोऽपि न तद्विना ।।५।।" नैगमनय मानता है कि, वस्तु सामान्य - विशेष उभयात्मक होती हैं । विशेष के बिना सामान्य की सत्ता नहीं होती हैं और सामान्य के बिना विशेष की भी सत्ता नहीं होती हैं । ___ यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, सभी पदार्थ सामान्य - विशेष उभय स्वरूप होते हैं । वस्तुओं में रही हुई जाति आदि सामान्य हैं और वस्तुओं का भेद करनेवाले विशेष हैं । सौ घट में एक्यबुद्धि सामान्य धर्म (घटत्व) से होती हैं । अर्थात् घट में रहे हुए घटत्व धर्म से सौ घट में एकत्व की बुद्धि होती हैं । सौ घट अलग-अलग व्यक्तिओं के हैं, तत् तत् अलग-अलग व्यक्ति उस उस घट में रहे हुए विशेष से (विशेष धर्म से) अपने-अपने घट को अलग करके पहचान लेती है । इस तरह से सर्व वस्तु सामान्य - विशेष उभयात्मक(24) होती हैं । कभी भी सामान्य विशेषरहित और विशेष सामान्यरहित नहीं होता हैं । नैगमनय उभयात्मक वस्तु को ग्रहण करता हैं । ___ इसी बात को ज्यादा स्पष्ट करते हुए नयोपदेश ग्रंथ में कहा है कि, सर्व पदार्थ सामान्य - विशेष उभयात्मक है और लोक प्रसिद्ध सामान्य - विशेषोभयात्मक पदार्थ का ग्राहक नैगमनय हैं । लोगों का व्यवहार सामान्य - विशेष उभय स्वरूप वस्तु से होता हैं। इसलिए लोक प्रसिद्ध अर्थ को स्वीकार करनेवाला नय नैगमनय कहा जाता हैं । सामान्य या विशेष दोनों में से एक की भी कमी की जाये तो लोक व्यवहार दुर्घट बन जाता हैं ।(25) क्योंकि, सामान्य विशेष के बिना नहीं रह सकता हैं और विशेष सामान्य के बिना नहीं रह सकता हैं । नैगमनय को समजने के लिए शास्त्र में(26) प्रस्थकादि तीन उदाहरण दिये हैं । वे उदाहरण पर विचार करने से नैगमनय का स्वरूप एकदम स्पष्ट हो जायेगा । - नैगमनय के उदाहरण : प्रथम उदाहरण - प्रस्थक का : प्रस्थक (धान्य-मापने का एक (लकडीका) माप विशेष) बनाने का इरादा रखनेवाला बढ़ई उसके लिए लकडी लेने के लिए जंगल में जाता हो, तब मार्ग में उसे कोई पूछे कि, आप कहाँ जा रहे हो ?' उस वक्त बढ़ई जवाब देता हैं कि, 'प्रस्थक लेने जाता हुँ ।' जंगल में पहुँचकर प्रस्थक प्रायोग्य लकडी काटता हो, तब कोई पूछे कि, 'आप क्या काटते हो?' उसके जवाब में बढ़ई कहता है कि, प्रस्थक काटता हुँ । लकडी लेकर घर की ओर वापस फिरते समय कोई पूछे कि, 'क्या लेकर आते हो ?' तो उसके उत्तर में वह कहता है कि, 'प्रस्थक लेकर आया हुँ ।' घर आकर लिकडी में से प्रस्थक का आकार बनाते हुए कोई पूछे कि, 'क्या बनाते हो,' तो वह उत्तर देता है कि, 'प्रस्थक बनाता हुँ ।' इस तरह से भिन्न न पे पछे गये प्रश्रो के जो उत्तर बढर्ड ने दिये हैं. वे सभी उत्तर नैगमनय की अपेक्षा से यथार्थ है । क्योंकि 24.अर्थाः सर्वेऽपि च सामान्यविशेषोभयात्मकाः । सामान्यं तत्र जात्यादि विशेषाच्च विभेदकाः ।।३।। ऐक्यबुद्धिर्घटशते भवेत्सामान्यधर्मतः विशेषाच्च निजं निजं लक्षयन्ति घटं जनाः ।।४।। 25. तत्प्रसिद्धिश्च सामान्यविशेषाधुभयाश्रया । तदन्यतरसंन्यासे व्यवहारो हि दुर्घटः ।।२१।। 26. एवं प्रस्थकाद्युदाहरणेष्वपि सिद्धान्तसिद्धेषु भावनीयम् । (अनेकान्त व्यवस्था) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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