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________________ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद ४५७/ १०८० महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा कृत तत्त्वार्थ - भाष्य की टीका में ज्यादा स्पष्टता करते हुए कहा हैं कि, नैगमनय सामान्य और विशेष का अवलंबन करके प्रवर्तित होता हैं । इसलिए एक सामान्यग्राही नैगमनय हैं और दूसरा विशेषग्राही नैगमनय हैं । घट में रही हुई घटत्व जाति को वस्तुरूप में स्वीकार करे वह सामान्यग्राही नैगमनय है । “घट" शब्द से वाच्य एक घटत्व जाति हैं, परन्तु कोई वस्तु (व्यक्ति - जातिमान्) नहीं हैं इस प्रकार एक सामान्य धर्म का जो स्वीकार करते है, वे सामान्यग्राही नैगमनय का अनुसरण करनेवाले हैं । (जो पद की शक्ति को जाति में मानते हैं, परन्तु व्यक्ति में नहीं मानते हैं, उनके मतानुसार यह अध्यवसाय विशेष हैं । इसके विषय में विशेष विचारणा तत्वार्थभाष्यकी(29) टीका में देख लें । सामान्य बोधवाले ये पदार्थ समझने में कठिन न पडे, इसलिए केवल उस चर्चाओं को नीचे टिप्पणी-२९ में दी गई है । व्युत्पत्तिवाद पर्यन्त नव्यन्याय के अभ्यासु को ही उस पंक्तिओं के भाव स्पष्ट होंगे और उससे विषय ज्यादा स्पष्ट बनेगा।) यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, यहाँ एक सामान्य धर्म को स्वीकार करनेवाले अध्यवसाय विशेष को सामान्यग्राही नैगमनय कहा हैं, वैसे एक धर्म से जाति ही लेना, ऐसा एकांतिक नियम नहीं हैं । वह एक धर्म; जाति, अखंडोपाधि, अन्यापोह या बुद्धिविशेष ऐसा कोई एक सामान्य धर्म ग्रहण करना हैं ।(30) विशेषग्राही नैगम नय के प्रकार : विशेषग्राही नय द्विक, त्रिक, चतुष्क और पंचकरूप हैं । तत्त्वार्थ-भाष्य-टीका के आधार पर उस प्रकारो का स्वरूप अब सोचेंगे । - (१) द्विकरूप विशेषग्राही नैगमनय(31) : घट में रही हुई घटत्व जाति को और घटरूप व्यक्ति को वस्तुरूप में स्वीकार करे वह द्विकरूप विशेषग्राही नैगमनय हैं । “घट" पद की शक्ति घटत्व जाति और “घट" व्यक्ति दोनों में जो स्वीकार करते हैं, वे जाति और व्यक्ति उभय को वस्तु के रूप में स्वीकार करते हैं, उनकी यह मान्यता द्विकरूप विशेषग्राही नैगमनय की हैं । (२) त्रिकरूप विशेषग्राही नैगमनय : घटत्व जाति, घटरूप व्यक्ति और घट शब्द के लिंग को वस्तुरूप में स्वीकार करनेवाले अध्यवसाय विशेष को त्रिकरूप विशेषग्राही नैगमनय कहा जाता हैं। “घट" पद की शक्ति घटत्व, घट व्यक्ति और लिंग - ये तीन में स्वीकार करनेवालो की मान्यता इस नय की हैं अर्थात् घटपद के वाच्य के रूप में घटत्व, घट और लिंग तीनो को गीनकर उन तीनों को वस्तु के रूप में स्वीकार करनेवाले दर्शन का अभिप्राय विशेष इस नय का हैं । (३) चतुष्करूप विशेषग्राही नैगमनय : संख्यादि सहित पहले बताये त्रिक को ग्रहण करनेवाला चतुष्करूप विशेषग्राही नैगमनय हैं । घटत्व जाति. घट व्यक्ति, घट शब्द का लिंग और घट की संख्या : ये चार को 'घट' पद से ग्रहण करनेवाले का अध्यवसाय विशेष चतुष्क विशेषग्राही नैगमनय हैं । (४) पंचकरूप विशेषग्राही नैगमनय : कारक सहित पहले बताये चतुष्क को ग्रहण करनेवाला पंचकरूप विशेषग्राही नैगमनय हैं। पूर्वोक्त श्लोक में (कि जो टिप्पणी-२८ मे बताया है उसमें) पाँच विकल्प बताये हैं । तत्त्वार्थ सूत्र की टीका में पहले बताये हुए पंचक उपरांत 'शब्द' को बढाकर षट्करूप विशेषग्राही नैगमनय का प्रकार बताया हैं अर्थात् जाति, व्यक्ति, 29.एकं जातिनामार्थः, लाघवेन तस्या एव वाच्यत्वौचित्यात्, अनेकव्यक्तीनां वाच्यत्वे गौरवात् । न च व्यक्तीनामपि प्रत्येकत्वाद्विनिगमनाविरहः, एवं येकस्यामेव व्यक्तौ शक्त्यभ्युपगमे व्यक्त्यन्तरे लक्षणायां स्वसमेवताश्रयत्वं संसर्ग इति गौरवम्, जात्या तु सहाश्रयत्वमेव संसर्ग इति लाघवम्, किं च गोः स्वरूपेण न गौरित्यादिन्यायाद्विशिष्टस्य वाच्यत्वमाश्रयणीयं नागृहीतविशेषण-न्यायाज्जातिरेव वाच्येति युक्तम्, व्यक्तिबोधस्तु लक्षणया, एवं हि विभक्त्यर्थान्वयोऽप्युपपत्स्यत इति दिग् । 30. एकमित्यनिर्धारितनिर्देशेन तज्जातिर्वास्तु अखण्डोपाधिर्वाऽन्यापोहो वा बुद्धिविशेषो वेत्यत्र नाग्रह इति ध्वन्यते । 31.द्विकमिति जातिव्यक्ती इत्यर्थः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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