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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
४५१/१०७४ ___ (श्री सम्मतितर्क आदि ग्रंथो के रचयिता) श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी के मतानुसार ऋजुसत्र को छोडकर नैगमादि तीन नय ही द्रव्यार्थिक नय है । उनके मतानुसार ऋजुसूत्र नय पर्यायार्थिक नय हैं । क्योंकि ऋजुसूत्र नय का विषय वर्तमान कालीन और स्वकीय वस्तु है, परन्तु अनागत, अतीत, परकीय वस्तु नहीं है अर्थात् ऋजुसूत्र नय से वर्तमानकालीन - स्वकीय वस्तु का बोध होता हैं । परन्तु उससे तुल्य अंश और ध्रुव अंश स्वरूप द्रव्य का बोध होता नहीं हैं । अर्थात् अतीत, अनागत और वर्तमान इन तीनों काल में विद्यमान ऐसे द्रव्य का बोध ऋजुसूत्र नय से नहीं होता है । परन्तु वर्तमानकालीन वस्तु का (वर्तमानकालीन पर्याय का) बोध होता हैं । इसलिए वह “पर्याय” को विषय बनाता होने से पर्यायार्थिक नय हैं ।
यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, मिट्टी अवस्था में, पृथुबुध्नोदरादि आकारयुक्त घट अवस्था में और नष्ट हुए घट की अवस्था (भग्नावस्थापन्न कपाल) में “यह मिट्टी है" ऐसे प्रकार का तुल्य-ध्रुवांश युक्त द्रव्य का बोध होता है । त्रिकालविषयक द्रव्य का बोध तो नैगम नय से होता हैं । परन्तु ऋजुसूत्र नय से तो वर्तमानकालीन घट का ही बोध होता हैं । अर्थात् वर्तमान पर्याय को आश्रय में रखकर ही वस्तु का बोध होता हैं । इसलिए वह पर्यायार्थिक नय हैं ।
पहले ऋजुसूत्र नय को पर्यायार्थिक नय मानने में जिस अनुयोगद्वार ग्रंथ के सूत्र के साथ जो विरोध बताया था, उसका समाधान इस तरह से किया जा सकता है - "अनुपयोगो द्रव्यम्" यह उक्ति अनुसार वर्तमानकालीन आवश्यक क्रिया जो उपयोग रहित होती हो तो उसे द्रव्य क्रिया कहा जाता हैं । इसलिए उस अनुपयोग अंश को आश्रय में रखकर वर्तमान आवश्यक पर्याय में द्रव्य का उपचार किया गया हैं । इस प्रकार अनुयोग द्वार के इस सूत्र के साथ आनेवाला विरोध को टाला जा सकता हैं । - पर्यायार्थिक नय के प्रकार :- पर्यायार्थिकस्य त्रयो भेदा : "शब्दः समभिरूढ एवम्भूतश्चेति" सम्प्रदायः ।
सिद्धसेनः। तदेवं सप्तोत्तरभेदाः । शब्द, समभिरुढ और एवंभूत : ये तीन पर्यायार्थिक नय के भेद हैं - ऐसा संप्रदाय हैं । परन्तु ऋजुसूत्र सहित शब्दादि चार पर्यायार्थिक नय के भेद है । इसलिए नय के कुल मिला के सात उत्तरभेद हैं ।
(उत्पाद और विनाश को जो प्राप्त करता हैं, उसे पर्याय कहा जाता हैं । अनादि-अनंत द्रव्य में स्वपर्याय प्रतिक्षण उत्पन्न होता है और नष्ट होता हैं । पहले हानि-वृद्धि रूप और नर-नारकादि पर्याय बताये थे । पुनः पर्याय के दो प्रकार हैं। (१) सहभावी पर्याय और (२) क्रमभावी पर्याय । सहभावी पर्याय को गुण कहा जाता हैं । ज्ञानादि गुण आत्मा के सहभावी पर्याय हैं । सुख-दुःख, हर्ष शोक आदि आत्मा के क्रमभावी पर्याय हैं । पर्याय को जो नय प्रधान बनाये, उसे पर्यायार्थिक नय कहा जाता हैं । इस पर्यायार्थिक नय के अपेक्षा भेद से तीन और चार प्रकार पहले बताया है ।)
नय के सात भेद : इस तरह से नय के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक : ये दो मुख्य भेद हैं और (पहले बताये अनुसार) नय के उत्तर भेद सात हैं : (१) नैगम, (२) संग्रह, (३) व्यवहार, (४) ऋजुसूत्र, (५) शब्द, (६) समभिरुढ और (७) एवंभूत । अब क्रमशः सातो नय का स्वरूप सोंचेगे ।
(१) नैगमनय : नैगमनय का स्वरूप समझाते हुए पू. महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजाने जैनतर्कभाषा में कहा है कि, - सामान्यविशेषाद्यनेकधर्मोपनयनपरोऽध्यवसायो नैगमः यथा पर्याययोर्द्रव्ययो: पर्यायद्रव्ययोश्च मुख्यामुख्यरुपतया विवक्षणपरः। 18) - वस्तु के सामान्य, विशेष आदि अनेक धर्मो का प्रतिपादन करने में तत्पर अध्यवसाय विशेष को 18.धर्मयोधर्मिणोधर्म-धर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन यद विवक्षणं स नैकगमो नैगमः ॥७॥ धर्मयोः-पर्याययोः, धर्मिणो:-द्रव्ययोः,
धर्मधर्मिणो:-द्रव्यपर्याययोश्च प्रधान-गौणभावेन विवक्षणं स नैगमः । नैके गमाः-बोधमार्गा यस्यासौ नैगम इति ।।७।।
ऋजुसूत्रा
पवार पारड
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