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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
- जीव में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व और अमूर्तत्व : यह छः विशेष गुण हैं । पुद्गल में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, अचेतनत्व और मूर्तत्व, यह छः विशेष गुण हैं । धर्मास्तिकाय में गतिहेतुत्व, अचेतनत्व, अमूर्तत्व : ये तीन विशेषगुण हैं । अधर्मास्तिकाय में स्थितिहेतुत्व, अचेतनत्व, अमूर्तत्व, ये तीन विशेषगुण हैं । आकाशास्तिकाय में अवगाहनहेतुत्व, अचेतनत्व, अमूर्तत्व, ये तीन विशेषगुण हैं । काल में वर्तनाहेतुत्व, अचेतनत्व, अमूर्तत्व, ये तीन विशेषगुण हैं । ___ यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, चेतनत्व-अचेतनत्व, मूर्तत्व-अमूर्तत्व : ये चार गुण स्वजाति की अपेक्षा से सामान्य गुण है और विजातीय की अपेक्षा से विशेषगुण है । अर्थात् प्रत्येक जीवो में चेतनत्व होता हैं । इसलिए स्वजाति की अपेक्षा से चेतनत्व सामान्य गुण हैं । जीव के सिवा अन्य पाँच द्रव्यो में चेतनत्व नहीं है । इसलिए चेतनत्व जीव को बाकी के पाँच द्रव्यो से (विजातीय से) व्यावृत्त करता होने से विशेष गुण है । इसी तरह से अचेतनत्व आदि तीन में सोच लेना ।
पहले बताये सामान्य - विशेष स्वभावो में से जीव और पुद्गल में वे सभी स्वभाव संगत होते हैं । धर्मास्तिकायअधर्मास्तिकाय-आकाशास्तिकाय : ये तीन द्रव्यों में चेतन, मूर्त, विभाव, अशुद्ध और एकप्रदेश, ये पाँच को छोडकर सोलह स्वभाव संगत होते है । ये सोलह स्वभावो में से एक “बहुप्रदेश" स्वभाव को बाद करके बाकी के पन्द्रह स्वभाव काल में संगत होते हैं ।(17)
इस तरह से द्रव्य और उसके गुण-पर्याय के बार में विचारणा की । उसके बारे में विशेष चर्चा जैनदर्शन के द्रव्यानुयोग के ग्रंथो में विस्तार से दिखाई देती हैं । विशेष जिज्ञासु तत् तत् ग्रंथो से जान ले । सामान्य दिशासूचन हो गया । अब हम मूल बात पे आयेंगे ।
जिस नय का विषय "द्रव्य" हो अथवा जो अभिप्राय विशेष में "द्रव्य" को प्रधान बनाया जाये, उसे द्रव्यार्थिक नय कहा जाता हैं और जिस नय का विषय “पर्याय" हो अथवा जो अभिप्राय विशेष में 'पर्याय' को प्रधान बनाया जाये, उसे पर्यायार्थिक नय कहा जाता हैं । - द्रव्यार्थिक नय के प्रकार :___ इस विषय में ग्रंथकार महर्षिओ के भिन्न भिन्न अभिप्राय है । द्रव्यार्थिक नय के प्रकार बताते हुए नय रहस्य ग्रंथ में बताया है कि - आद्यस्य चत्वारो भेदाः - नैगमः संग्रहो व्यवहार ऋजुसूत्रश्चेति जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण प्रभृतयः। ऋजुसूत्रो यदि द्रव्यं नाभ्युपेयात् तदा “उज्जुसुअस्स एगे अणुवउत्ते एगं दव्वावस्सयं, पुहत्तं नेच्छइत्ति" (अनु. १४) इति सूत्रं विरुध्येत।
"ऋजुसूत्रवर्जास्त्रय एव द्रव्यार्थिकभेदाः" इति तु वादिनः सिद्धसेनस्य मतम् । अतीतानागत-परकीयभेदपृथक्त्वपरित्यागात्-ऋजुसूत्रेण स्वकार्य-साधकत्वेन स्वकीय-वर्तमान वस्तुन-एवोपगमात् नास्य तुल्यांश - ध्रुवांश - लक्षणद्रव्याभ्युपगमः। उक्त सूत्रं तु अनुपयोगांशमादाय वर्तमानावश्यकपर्याये द्रव्योपचारात् समाधेयम्।
(विशेषावश्यक भाष्य आदि ग्रंथो के रचयिता) श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणी इत्यादि पू. आचार्य भगवंत प्रथम द्रव्यार्थिक नय के चार प्रकार बताते हैं । (१) नैगम, (२) संग्रह, (३) व्यवहार और (४) ऋजुसूत्र । उनके मतानुसार यदि ऋजुसूत्र नय 'द्रव्य' की प्रधानता से वस्तु का ज्ञान कराता न हो, तो “उज्जुसुअस्स xxxxxx..." इस अनुयोगद्वारसूत्र के साथ विरोध आता हैं । इसलिए ऋजुसूत्र नय का विषय 'द्रव्य' होने से वह द्रव्यार्थिक नय हैं ।
17. एकविंशति भावाः स्युः जीवपुद्गलयोर्मताः । धर्मादीनां षोडश स्युः काले पञ्चदश स्मृताः ।।
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