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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
(२) आत्मरुपेण अभेदवृत्ति : आत्मरूप अर्थात् वस्तु का पर्याय । वस्तु के पर्याय से अभेदवृत्ति । वस्तु के पर्याय द्वारा अभेदवृत्ति से अनंताधर्मो का युगपत् कथन होता हैं । जैसे “अस्तित्व" घट का पर्याय हैं, वैसे उससे अतिरिक्त अन्य भी धर्म घट के ही पर्याय हैं । इसलिए अस्तित्व की अन्य धर्मो के साथ अभेदवृत्ति हैं ।
(३) अर्थाभेदवृत्ति : अर्थ यानी आधार । जैसे घट वस्तु “अस्तित्व" धर्म का आधार हैं, वैसे उससे अतिरिक्त अन्य धर्मो का भी घट आधार हैं । इसलिए अर्थाभेदवृत्ति हैं ।
(४) संबंधाभेदवृत्ति : अविष्वग् (अपृथग्) भाव को संबंध कहा जाता हैं । जैसे घट में अस्तित्व का अविष्वग् भाव हैं, वैसे उसके सिवा अन्यधर्मो का भी घट में संबंध हैं ही । इसलिए संबंधाभेदवृत्ति हैं ।
(५) उपकाराभेदवृत्ति : जो घट में लोकप्रवृत्ति स्वरूप उपकार अस्तित्वेन किया जाता है, वही उपकार अन्य धर्मो के द्वारा भी होता है । क्योंकि, सकल धर्म से विशिष्ट घट में ही लोकप्रवृत्ति होती है । इसलिए उपकाराभेदवृत्ति है ।
(६) गुणीदेशाभेदवृत्ति : गुणी घट, उसका देश = क्षेत्र भूतलादि, उस भूतलादि का आश्रय करके जैसे घट में 'अस्तित्व' धर्म का सद्भाव है । वैसे अन्य धर्मो का भी सद्भाव है, इसलिए गुणीदेशाभेदवृत्ति है।
(७) संसर्गाभेदवृत्ति : भेद प्राधान्य होने पर भी संबंध हो उसे संसर्ग कहा जाता है । इसलिए जो घट में अस्तित्व का संसर्ग है, उसी घट में अन्य धर्मो का भी संसर्ग है ही । इसलिए संसर्गाभेदवृत्ति । यहाँ याद रखना कि, संबंध और संसर्ग में अन्तर (भेद) हैं । संसर्ग में भेद प्राधान्य से होता है और अभेद गौणरूप में होता हैं । संबंध में अभेद प्राधान्य से होता है और भेद गौणरूप से होता है ।
(८) शब्दाभेदवृत्ति : अस्तित्व धर्मात्मक घट का वाचक जो शब्द है, वही शब्द अन्य धर्मात्मक घट का भी है । इसलिए शब्दाभेदवृत्ति ।
इस तरह से सकलादेश का स्वरूप देखा । पहले जो प्रमाण वाक्य देखा था, उसका वह अपर पर्याय ही हैं।
विकलादेश : विकालादेश का स्वरूप सकलादेश से विपरित है । नय वाक्य विकालादेश है । क्योंकि एक वस्तु में रहे हुए नय वाक्य से प्रतिपन्न ‘अस्तित्व' आदि एक धर्म का कालादि आठ द्वारा भेदवृत्ति से विधान जब किया जाता हैं, तब विकलादेश होता हैं ।
प्रमाण वाक्य में कालादि आठ द्वारा अभेदवृत्ति से अनंता धर्मो का एकसाथ विधान किया जाता हैं । जब कि, नय वाक्य में कालादि आठो करके भेदवृत्ति से विवक्षित एक धर्म का ही विधान किया जाता है । इसलिए प्रमाण वाक्य सकलादेशात्मक है और नयवाक्य विकलादेशात्मक है । ___ दुर्नय वाक्य तो सकलादेशात्मक भी नहीं है या विकलादेशात्मक भी नहीं है । परन्तु वह सर्वथा हेय होने से बहिष्कृत ही है। क्योंकि उससे वस्तु का सच्चा बोध ही नहीं होता हैं ।
v नय का विशेष स्वरूप : तत्त्वार्थ सूत्रकार महर्षि ने स्वोपज्ञ भाष्य में नय का सामान्य लक्षण भिन्न - भिन्न पर्यायो के द्वारा बताया हैं । उसका अवगाहन करने से नय विषयक बोध ज्यादा स्पष्ट बनेगा । महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा ने नयरहस्य प्रकरण में न्याय की शैली में उस पर्यायो के अर्थ किये है । उससे विशेषतः नय का विषय परिस्फुट होगा । इसलिए यहाँ उस नय के पर्यायवाची शब्दो को अर्थ सहित सोचेंगे ।
"नयाः, प्रापकाः, साधकाः, निर्वर्तकाः, निर्भासकाः, उपलम्भका:, व्यञ्जकाः, इत्यनान्तरम् इति" (तत्त्वार्थ भाष्य १-३५)- प्रत्येक पर्यायो का स्वरूप नयरहस्य ग्रंथ के माध्यम से सोचेगें ।
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