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________________ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद ४४३ / १०६६ प्रकार तीनों वाक्यों के बीच का विवेक है । प्रमाण वाक्य से वस्तु का समग्रतया बोध होता । नय वाक्य से वस्तु का सापेक्षिक एक धर्म का बोध होता हैं । दुर्नय वाक्य से वस्तु का एकांतिक एक धर्म का बोध होता हैं, जो मिथ्या हैं । प्रमाण वाक्य, नय वाक्य से गर्भित होता हैं । (11) और दुर्नय वाक्य से दूरीकृत होता हैं । (अर्थात् नय वाक्यों के समूहरूप ही प्रमाण वाक्य होता हैं और प्रमाण वाक्य दुर्नय वाक्य से दूरीकृत होता हैं - प्रमाण वाक्य में दुर्नय वाक्यो की कोई भूमिका नहीं होती हैं ।) विशेष में... प्रमाण वाक्य सकलदेशात्मक हैं, नय वाक्य विकलदेशात्मक हैं । दुर्नय वाक्य न तो सकल देशात्मक है, न तो विकलदेशात्मक हैं । परन्तु सर्वथा हेय होने से बहिस्कृत ही हैं । सकलादेश : सकलादेश कब हो, वह बताते हुए नयप्रकाशस्तव में कहा है कि, " एकस्मिन्नैव हि घटादिवस्तुनि कालादिभिरष्टभिः कृत्वाऽभेदवृत्त्या प्रमाणप्रतिपन्ना अनन्ता अपि धर्मा यौगपद्येन यदाऽभिधीयते तदा सकलादेशो भवति । एक ही घटादि वस्तु में कालादि आठ द्वारा अभेदवृत्ति से प्रमाण वाक्य द्वारा प्रतिपन्न (ग्राह्य) अनंता धर्म भी जब एकसाथ कहे जाते हैं, तब सकलादेश होता हैं । सकलादेश साधक आठ अंग बताते हुए कहा है कि... " के पुनः कालादयः ? काल:, आत्मरूपम्, अर्थः सम्बन्धः, उपकारः, गुणिदेशः, संसर्गः, शब्दः इति । - (१) काल, (२) आत्म स्वरूप (वस्तु का पर्याय), (३) अर्थ (आधार), (४) संबंध (अविष्वग् भाव), (५) उपकार (वस्तु की प्रवृत्ति), (६) गुणीदेश (वस्तु का क्षेत्र), (७) संसर्ग और (८) शब्द (वस्तु का वाचक) । अब कालादि के विधान द्वारा अभेदवृत्ति से किस प्रकार से प्रमाण प्रतिपन्न अनंता धर्मो का युगपत् विधान (कथन) होता है, वह देखेंगे । (१) कालेन अभेदवृत्ति: सब से पहले यह प्रश्न होता है कि, अभेदवृत्ति से एक ही वस्तु में युगपत् विरुद्ध धर्म का ग्रह किस तरह से हो सकता हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए नयप्रकाशस्तव ग्रंथ में बताया है कि, "स्यादस्त्येव घटः " इस स्थान पे घट में जिस काल में अस्तित्व धर्म हैं, उसी काल में उसी घट में ही बाकी के नास्तित्वादि धर्म भी हैं । इसलिए कालेन अभेदवृत्ति हैं अर्थात् एक ही काल में एक ही घट में अस्तित्व नास्तित्व धर्म साथ रहते हैं । एककालेन उन दोनों के बीच अभेद हैं अर्थात् एककालावच्छेदेन अस्तित्व और उससे विरुद्ध नास्तित्वादि धर्मो के बीच (एक ही घट वस्तु में साथ रहे हुए होने से ) अभेद हैं और इसलिए ही कालेन अभेदवृत्ति से वे सभी धर्मो का एकसाथ कथन होता हैं । - Jain Education International यहाँ दूसरा एक प्रश्न उपस्थित होता है कि, अस्तित्व के साथ जिसका विरोध नहीं है, ऐसे अविरुद्ध द्रव्यत्वादि धर्मो की एकत्र (घट वस्तु में) कालेन अभेदवृत्ति हो सकती है, परन्तु सर्वथा विरुद्ध ऐसे नास्तित्वादि धर्मो की एक ही घट वस्तु में कालेन अभेदवृत्ति किस तरह से संभवित हैं ? इस प्रश्न का समाधान देते हुए बताते है कि, जिस काल में अस्तित्व धर्म का निरूपण किया जाता है, उसी काल में घट में नास्तित्व धर्म भी विद्यमान हैं अर्थात् "स्यादस्त्येव घटः " ऐसा विधान किया जाता हैं, तब अस्तित्व के समानाधिकरण अनंता धर्मो का (घटत्वादि अनंता धर्मो का) प्रतिपादन किया जाता हैं। क्योंकि, घटत्वादि अनंता धर्मो से विशिष्ट ही घट की सत्ता का योग है । अन्यथा (उस काल में घटत्वादि अनंता धर्मो से विशिष्ट घट का प्रतिपादन किया हुआ माना न जाये तो) घट के असत्त्व की आपत्ति आकार खडी रहे । इसलिए अस्तित्व के समानाधिकरण अनंता धर्मो का भी उसी काल में प्रतिपादन होता ही है, इसलिए कालेन अभेदवृत्ति हैं । 11. प्रमाणवाक्यं नयवाक्यगर्भितं निर्दूषणं दुर्नयवाक्यदूरितम् । स्यादेवयुक्तं जिनराजशासने सतां चमत्कारकरं भवेन्न किम् ? ।।२।। - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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