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________________ ४४२/१०६५ प्रश्न : नयवाक्य प्रमाणभूत है या अप्रमाणभूत हैं ? उत्तर : नयवाक्य प्रमाण भी नहीं है और अप्रमाण भी नहीं हैं। परन्तु प्रमाण का एक देश हैं। क्योंकि, नयवाक्य के द्वारा प्रमाण द्वारा स्वीकृत अनंता धर्मो में से एक ही " अस्तित्व" इत्यादि धर्म का ग्रह होता हैं - स्वीकार होता हैं। इसलिए नयवाक्य प्रमाण का एक देश हैं। षड् समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जनदर्शन में नयवाद प्रमाणवाक्य एक साथ सकल धर्मो का ग्रह करता है, इसलिए नयवाक्य प्रमाण भी नहीं हैं और नयवाक्य प्रमाण द्वारा स्वीकृत अनंता धर्मो में से कोई भी धर्मो का अपलाप किये बिना स्वयं की अपेक्षा अनुसार के इच्छित अंश (धर्म) का ग्रह करता है, इसलिए अप्रमाणभूत भी नहीं हैं। प्रश्न दुर्नय वाक्य भी एक धर्म का ग्रह करता है और नय वाक्य भी एक धर्म का ग्रह करता है, तो फिर नयवाक्य को दुर्नय वाक्य क्यों नहीं कहा जाये ? उत्तर : दुर्नय वाक्य और (सु) नय वाक्य में अन्तर है । दुर्नय वाक्य वस्तु के शेष धर्मो का अपलाप करके एक धर्म का ग्राहक बनता हैं । जब कि, नयवाक्य शेष धर्मो का अपलाप किये बिना अपेक्षा भेद से उस धर्मो को गौणरूप से स्वीकृत रखकर अपने अभिप्रेत धर्म को पुरस्कृत करता हैं । इसलिए सर्वधर्मो के पुरस्कर्ता प्रमाण वाक्य के अंतर्गत नय वाक्य आ सकता है । सारांश में नय वाक्य प्रमाण वाक्य के अंतर्निष्ठ हैं, जब कि, दुर्नय वाक्य प्रमाण वाक्य के बहिर्भूत हैं। सुनय वाक्यों का समुदाय ही प्रमाण वाक्य का विषय है। दुर्नय वाक्य प्रमाण वाक्य के विषयभूत समुदाय में नहीं आ सकता हैं। इसलिए वह प्रमाण वाक्य के बहिर्भूत हैं। प्रश्न : प्रमाण वाक्य का आकार किस प्रकार का होता हैं ? उत्तर : प्रमाण वाक्य का आकार 'स्यादस्त्येव घट:' इत्याकारक है । यहाँ " स्यादेव " पद से लांछित होने से उसकी प्रमाणता हैं । उसमें स्वरूपादि द्वारा घट में 'अस्तित्व' धर्म का 'स्यात्' पद द्वारा प्रतिपादन किया जाता हैं। परन्तु पररुपादि द्वारा नहीं । 'एव' पद द्वारा 'अस्तित्व' से विरुद्ध नास्तित्वादि धर्मो का व्यवच्छेद प्रतिपादित किया हैं । यहाँ उल्लेखनीय हैं कि प्रमाण वाक्य में अस्तित्व, सत्त्वादि धर्मो के प्रतिपादन के साथ ही नास्तित्व असत्त्वादि का भी निषेधमुखेन प्रतिपादन हो ही जाता है। जब कि नय वाक्य में वस्तु के एक मात्र " अस्तित्व” आदि धर्म की मुख्यता से विधान होता हैं । प्रमाण वाक्य में स्वरूप से अस्तित्व और पररुप से नास्तित्व, इन दोनो का "स्यादस्त्येव घटः ।" इत्याकारक विधान द्वारा एक साथ ( युगपत्) ही विधान हो जाता है । नय वाक्य में 'स्यादस्ति घटः । ' इत्याकारक विधान द्वारा केवल " अस्तित्व" धर्म का ही प्रतिपादन होता हैं । इस तरह प्रमाण वाक्य और नय वाक्य के बीच अन्तर हैं । - प्रश्न प्रमाण वाक्य का आकार "अस्त्येव घटः " ऐसा हो तो भी पहले बताये अनुसार का बोध हो जाता है, तो फिर "स्याद् " पद को अधिक क्यों रखा हैं ? Jain Education International उत्तर : प्रमाण वाक्य में " स्यात् " पद अधिक नहीं हैं, परन्तु आवश्यक ही है । क्योंकि यदि वह रखा न जाये तो दुर्नय वाक्य में प्रमाण वाक्य का लक्षण चला जाने से अतिव्याप्ति आती हैं । दुर्नय वाक्य का आकार 'अस्त्येव घट: ' ही है । दुर्नय वाक्य वस्तु के स्वाभिप्रेत अंश-धर्म से अतिरिक्त अंशो का अपलाप करता हैं । इसलिए प्रमाण वाक्य : स्यादस्त्येव घटः । नय वाक्य : स्यादस्ति घटः । दुर्नय वाक्य : अस्त्येव घटः । इस For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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