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________________ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद धर्मप्रकारकापेक्षाख्याशाब्दबोधजनकं वचनं नयवाक्यमित्यर्थः । इदं वचनरुपस्य नयस्य लक्षणं हि मिश्रितं - नानाधर्मे करंबितं वस्तु अपेक्षां विना विवेचयितुं न शक्यम् ।।२।। सत्त्व असत्त्व, नित्यत्व - अनित्यत्व, भेद - अभेद आदि जो धर्म हैं, उस धर्मो से युक्त जीव- पुद्गल आदि द्रव्यो के बारे जो अपेक्षावचन अर्थात् (उस अनंतधर्मात्मक वस्तु का) प्रतिनियत धर्म जिसमें प्रकार हैं, ऐसे अपेक्षा नामके शाब्दबोध के जनक वाक्य को नयवाक्य कहा जाता हैं । अर्थात् अपेक्षाज्ञान में अनंतधर्मात्मक वस्तु का प्रतिनियत धर्म प्रकार बना है और ऐसे प्रतिनियत धर्म प्रकारक अपेक्षाज्ञान के जनक वचन को नयवाक्य कहा जाता हैं । यह अपेक्षा वचन वह नय का निश्चित लक्षण हैं । अनेक धर्मो से युक्त वस्तु को अपेक्षा के बिना विवेचित नहीं की जा सकती । एक वस्तु में भिन्न-भिन्न अपेक्षा से रहे हुए अनेक धर्म कि जो वस्तु के स्वपर्याय या परपर्यायरूप में उसमें रहे हुए होते हैं, वे अनंताधर्मो में से एक धर्म को किसी अपेक्षा विशेष से जो अपेक्षा वचन द्वारा निर्वचन किया जाये, उस अपेक्षा वचन को नयवाक्य कहा जाता हैं । इसलिए ही नयोपदेश ग्रंथ में आगे बताया हैं कि, तेन सापेक्षभावेषु प्रतीत्यवचनं नयः । ४४१/१०६४ निश्चितं - प्रमाणनयतत्त्वालोक के नयपरिच्छेद में नय के विषय में ज्यादा स्पष्ट करते हुए बताया हैं कि - "वस्त्वंशे प्रवर्तमानो नयः स्वार्थेकदेशव्यवसायलक्षणो न प्रमाणं नापि मिथ्याज्ञानमिति ।।७-१।।" वस्तु के एक प्रतिनियत अंश में प्रवर्तित नय स्वयं को इच्छित ऐसे (वस्तु के) एक देश के ज्ञान स्वरूप है और वह प्रमाण नहीं हैं । (क्योंकि प्रमाण तो वस्तु के समस्त अंशो का ग्राहक है और वह नय मिथ्याज्ञान भी नहीं हैं । (क्योंकि नय वस्तु में रहे हुए प्रतिनियत धर्म का अवगाहन कराता है और उस वस्तु के स्व को अनभिप्रेत ऐसे अन्य धर्मो का अपलाप नहीं करता हैं । स्वयं को इष्ट अंश = धर्म को मुख्यता से पुरस्कृत करता है और अन्य नयो के इष्ट धर्मो को गौणरूप से स्वीकृत रखता हैं ।) नयवाक्य का लक्षण : नयवाक्य का लक्षण बताते हुए "नयप्रकाशस्तव" ग्रंथ में बताया हैं कि, नयवाक्यलक्षणं तु अपरधर्मग्रहोपेक्षकत्वे सत्येकधर्मग्राहिवाक्यं नयवाक्यम् । वस्तु के अपर (अन्य ) धर्मो को ग्रहण करने में उपेक्षा करने के साथ (स्वयं को अभिप्रेत वस्तु के) एक धर्म को ग्रहण करनेवाले वाक्य को नयवाक्य कहा जाता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि, नयवाक्य वस्तु के स्वयं को इच्छित नहीं है, ऐसे धर्मो को ग्रहण करने में उपेक्षा करता है अर्थात् स्व को अनभिप्रेत धर्मो के ग्रहण में उदासीन बना रहता हैं । परन्तु वह अन्य धर्मो की पूर्ण उपेक्षा - अपलाप नहीं करता है, यह बात याद रखें । यदि अन्य धर्मो का अपलाप करके (अपेक्षा भेद से रहे हुए उस धर्मो का एकांत से निषेध फरमाकर अपलाप करके) स्वयं को इच्छित अंशो को ही बताये तो वह नयवाक्य नहीं है, पर दुर्नयवाक्य हैं । प्रश्न : नय वाक्य का आकार किस प्रकार का होता हैं ? Jain Education International - उत्तर : नय वाक्य का आकार इस अनुसार से हैं "स्यादस्ति घटः ।" यहाँ याद रखना कि इस नयवाक्य का आकार " स्यात्” पद से लांछित होने पर भी किसी प्रकार से (अपेक्षा से) घट में " अस्तित्व" मात्र को सिद्ध करता हैं और अस्तित्व के समानाधिकरण उससे (अस्तित्व से) अतिरिक्त अनंता भी धर्मो की उपेक्षा ही होती हैं अर्थात् एक घट वस्तु में " अस्तित्व" धर्म रहा हुआ हैं । उसी घट में “अस्तित्व" से अतिरिक्त दूसरे नित्यत्वादि अनंता धर्म रहे हुए हैं, जो 'अस्तित्व' के समानाधिकरण धर्म हैं, उस अनंता धर्मो की उपेक्षा करके मात्र घट में “ अस्तित्व" धर्म को सिद्ध करने के लिए जो वाक्यप्रयोग हो, उसको नयवाक्य कहा जाता हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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