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________________ ४४० / १०६३ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद नय का सामान्य लक्षण, नय के भेद-प्रभेद और उसका स्वरूप तथा नय में सप्तभंगी का योजन आदि विषयो को अब क्रमशः सोचेंगे । जैनदर्शन के स्याद्वाद को समझने के लिए नय समझना आवश्यक हैं । अनंत धर्मात्माक वस्तु के स्वरूप को सर्वांगीण रुप से समझने के लिए वस्तु के एक-एक धर्म को अपेक्षा भेद से समझना भी आवश्यक हैं और वस्तु के एक-एक धर्म को भिन्न-भिन्न अपेक्षा से समझने का मार्ग अर्थात् नयवाद हैं । • नय का सामान्य लक्षण : नय का सामान्य लक्षण बताते हुए नयरहस्य प्रकरण में कहा है कि, " प्रकृतवस्त्वंशग्राही तदितरांशाप्रतिक्षेपी अध्यवसायविशेषो नयः । " प्रकृत वस्तु के एक अंश (धर्म) को ग्रहण करनेवाला और उस वस्तु के इतर अंशो का (धर्मो का ) प्रतिक्षेप (अपलाप) नहीं करनेवाले अध्यवसाय विशेष को नय कहा जाता हैं । जैनतर्क भाषा में भी नय की (पहले बताई ऐसी) व्याख्या की हैं - " प्रमाणपरिच्छिन्नस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकदेशग्राहिणस्तदितरांशाप्रतिक्षेपिणोऽध्यवसायविशेषो नयः ।। " (8) प्रमाण जैसे ज्ञान हैं, वैसे नय भी ज्ञान हैं। दोनों में अन्तर इतना ही है कि प्रमाण वस्तु के सभी धर्मो का ग्राहक है और न तत् तत् वस्तु के अपने को (स्वयं को) अभिप्रेत एक निश्चित प्रकार के धर्म का ग्राहक हैं । प्रदीप ग्रंथ में प्रमाण और नय के विषयो को बताते हुए कहा है कि, सामान्य विशेषादि नाना ( अनेक ) स्वभावात्मक घटादि वस्तु प्रमाण का विषय हैं। जब वह घटादि वस्तुओं के अनेक स्वभावों में से विवक्षित एक स्वभाव नय का विषय हैं ।(9) सारांश में, अनंतधर्मात्मक वस्तुग्राही प्रमाण है और प्रमाण द्वारा संगृहीत अनंतधर्मात्मक वस्तु का एक अंश नय का विषय हैं। ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को भी नय कहा जाता हैं । (10) अनुयोग द्वार सूत्र की टीका में नय का स्वरूप बताते हुए कहा है कि, "सर्वत्रानन्तधर्माध्यासिते वस्तुनि एकांशग्राहको बोधो नयः । " सर्वत्र अनंतधर्मात्मक वस्तु में एक अंश का ग्राहक बोध नय कहा जाता हैं । " नीयते येन श्रुताख्याप्रमाणविषयीकृतस्यार्थ।।७ / १ ।। " प्रमाणनयतत्त्वालोक के सातवें परिच्छद में कहा है कि स्यांशस्तदितरांशौदासीन्यतः स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः शाब्दबोध में प्रतिभासित होती अनंत अंशात्मक वस्तु में से इतर अंशो की उदासीनतापूर्वक वस्तु का एक अंश जो अभिप्राय विशेष से मालूम हो, उस वक्ता के अभिप्राय विशेष को नय कहा जाता हैं । अर्थात् प्रत्येक पदार्थ में अनंतधर्म - र हुए हैं। उसमें से अभीष्ट अंशो को (धर्मो को ) ग्रहण करनेवाला और उसके अतिरिक्त दूसरे धर्मो के प्रति उदासीन रहनेवाला अर्थात् उस धर्मो का अपलाप नहीं करनेवाला, जो ज्ञाता का अध्यवसाय विशेष वह नय कहा जाता हैं । 46 साराश में वक्ता के तात्पर्यानुसार वस्तु के तत् तत् स्वरूप को समजने के साधन विशेष को नय कहा जाता हैं । 'अनेकांत व्यवस्था" प्रकरण 'नय की व्याख्या करते हुए कहा हा कि, जिसके द्वारा प्रतिनियत धर्म का ग्रह हो, उसको नय कहा जाता हैं । न्याय विशारद न्यायाचार्य महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजाने नयोपदेश ग्रंथ में "नय" के स्वरूप की स्पष्टता करते हुए बताया है कि, सत्त्वासत्त्वाद्युपेतार्थेष्वपेक्षावचनं नयः । न विवेचयितुं शक्यं विनापेक्षं हि मिश्रितम् ।।२।। सत्त्वासत्त्व - नित्यानित्य - भेदाभेदादयो, ये तैरुपेता येऽर्था जीवपुद्गलादयस्तेषु अपेक्षावचनं प्रतिनियत8. नानास्वभावेभ्यो व्यावृत्त्यैकस्मिन् स्वभावे वस्तु नयति - प्राप्नोतीति नयः ।। 9 प्रमाणेन संगृहीतार्थेकांशी नयः ।। 10. ज्ञातुरभिप्रायः नयः । (नयप्रदीप ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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