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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
परिशिष्ट - ३,
(1) सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः ।
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जैनदर्शन में नयवाद
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र; इन तीनों के सुभग मिलने से मोक्षमार्ग की प्राप्ती होती हैं और दीर्घकालपर्यन्त इस (2) रत्नत्रयी की साधना करते-करते सर्वकर्म का क्षय होता है और अंत में आत्मा की मुक्ति होती हैं । श्री वीतराग परमात्माने प्ररूपित किये हुए जीवादि नौ तत्त्वो के उपर की सम्यक् श्रद्धा को (सम्यक् रुचि को ) सम्यग्दर्शन कहा जाता है । उस जीवादि नौ तत्त्वो के यथार्थ बोध को सम्यग्ज्ञान कहा जाता है और सर्व सावद्ययोगो के - पाप व्यापारो के त्याग को सम्यक् चारित्र कहा जाता है । ( 3 ) संक्षिप्त में, सम्यग्दर्शन तत्त्वरूचि स्वरूप है । सम्यग्ज्ञान तत्त्वावबोध स्वरूप है और सम्यक्चारित्र तत्त्वपरिणति स्वरूप हैं ।
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रत्नत्रयी की प्राप्ति, शुद्धि और वृद्धि में सम्यग्दर्शन की भूमिका अतीव महत्त्वपूर्ण हैं । सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र सम्यग् (तात्त्विक) नहीं बन सकते हैं । सम्यग्दर्शन के अभाव में प्राप्त होता ज्ञान आत्महितकर बनने के बजाय आत्मा में असत् तत्त्वो का बल बढानेवाला बनता है और सम्यग्दर्शन की गैरमौजूदगी में प्राप्त हुआ चारित्र आत्मशुद्धि का कारण नहीं बनता हैं । सम्यग्दर्शन अर्थात् जगत का यथार्थदर्शन, जगत के पदार्थों का वास्तविक दर्शन हुए बिना हेयउपादेय पदार्थो का तात्त्विक निर्णय नहीं हो सकता हैं । उसके बिना हेय की निवृत्ति और उपादेय की प्रवृत्ति तात्त्विक दृष्टि से संभव नहीं होती है । तात्त्विक निवृत्ति और प्रवृत्ति के बिना आत्मा में अड्डा जमायें बैठे हुए अनादि के कुसंस्कार और पापकर्म नष्ट नहीं हो सकते हैं और उसके बिना रत्नत्रयी की साधना नहीं हो सकती हैं ।
सम्यग्दर्शन नींव का गुण हैं । उसके आने से आत्मा के छोटे-बड़े सभी ज्ञानादि गुणों तात्त्विक बन जाते हैं और रागादि दोष अपना सामर्थ्य खो देते हैं । सम्यग्दर्शन का वास्तविक स्वरूप तत्त्वरूचि हैं । आत्मा के लिए जो तारक तत्त्व हैं, उसका सेवन करने की आतुरता और जो मारक तत्त्व है, उसको जीवन में से तिलांजली देने की इच्छा को तत्त्वरुचि कहा जाता हैं । जब तत्त्वो का यथार्थ बोध हो और तत्त्व के विषय में एक भी भ्रान्ति रह न जाये, तब सच्ची तत्त्वरूचि कही जाती हैं । तत्त्वार्थ सूत्रकार महर्षिने तत्त्वो का यथार्थ बोध करने का मार्ग बताते हुए बताया हैं कि,
प्रमाणनयैरधिगमः ।। (तत्त्वार्थाधिगम सूत्र १ - ६ ) । प्रमाण और नय : ये दो मार्ग से तत्त्वो का अधिगम-बोध होता हैं ।
जिस ज्ञान द्वारा वस्तु तत्त्व को जाना जा सकता हैं, उसे प्रमाण कहा जाता हैं । ( 4 ) प्रमाण सकल वस्तु का ग्राहक हैं।(5) अर्थात् प्रमाण द्वारा अनंतधर्मात्मक वस्तुतत्त्व का बोध होता हैं । प्रमाण का विषय अनंतधर्मात्मक वस्तु (पदार्थ) हैं ।(6) प्रमाण द्वारा जो अनंत धर्मात्मक वस्तु ग्रहण होती हैं, उस अनंतधर्मात्मक वस्तु के एक अंश को ग्रहण करनेवाला (ग्राहक) नय हैं । (7)
1. तत्त्वार्थाधिगम सूत्र १-१ (२) जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन आदि तीन को "रत्नत्रयी" संज्ञा दी हैं । 2. रूचिर्जिनोक्ततत्त्वेषु, सम्यक् श्रद्धानमुच्यते । जायते तन्निसर्गेण गुरोरधिगमेन ।। 3. यथावस्थिततत्त्वानां संक्षेपाद्विस्तरेण वा । योऽवबोधस्तमत्राहुः, सम्यग्ज्ञानं मनीषिणः ||१|| सर्वसावद्ययोगनां, त्यागश्चारित्रमिष्यते कीर्तितं तदहिंसादि व्रतभेदेन पञ्चधा ।। (योगशास्त्र - १/१६-१७-१८) 4. प्रमीयते परिच्छेद्यते वस्तुतत्त्वं यज्ज्ञानेन तत्प्रमाणम् ।। (नयचक्रकलापपद्धतिः) । 5. सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणम् ।। (नयचक्रकलापपद्धतिः) । 6. अनन्तधर्मकं वस्तु प्रमाणविषयस्त्विह ।। (षड्दर्शन समुच्चय - ५५ ) 7. प्रमाणेन वस्तुसङ्गृहीतार्थैकांशो नयः ।। (नयचक्रकलापपद्धतिः) ।
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