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________________ षड्, समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद ४४५/१०६८ (१) प्रापकत्वं - प्रमाण प्रतिपन्न - प्रतियोगिप्रतियोगिमद् - भावापन्ननानाधर्मेकतरमात्रप्रकारकत्वम् । प्रमाण द्वारा प्रतिपन्न (सुनिश्चित) और प्रतियोगि - प्रतियोगिमद्-भावापन्न (अर्थात् विरोधी - विरोधिमद् भाव से युक्त) जो (वस्तु के) अनेक धर्म है, उसमें से कोई एक धर्म मात्र प्रकारक ज्ञान को "नय" कहा जाता हैं । कहने का आशय यह है कि, प्रमाण से प्रतिपन्न वस्तु अनंतधर्मात्मक हैं । उस अनंत धर्मात्मक वस्तु में परस्पर विरुद्ध धर्म भिन्न-भिन्न अपेक्षा से रहे हुए होते हैं । जैसे कि, घट वस्तु में अपेक्षा से नित्यत्व और अपेक्षा से अनित्यत्व ऐसे परस्पर विरुद्ध धर्म रहते हैं । नित्यत्व का विरोधी धर्म अनित्यत्व है और अनित्यत्व का विरोधी धर्म नित्यत्व हैं । इसलिए नित्यत्व जब विरोधी है तब अनित्यत्व विरोधिमद् (विरोध्य) है और अनित्यत्व जब विरोधी है, तब नित्यत्व विरोध्य हैं । इसलिए उन दोनों धर्मो से युक्त वस्तु विरोधि - विरोधिमद्भाव से युक्त हैं । ___ इसलिए प्रमाण से प्रतिपन्न और विरोधी - विरोधिमद् भाव से युक्त अनंताधर्मात्मक वस्तु का कोई एक धर्म (नित्यत्व या अनित्यत्व अथवा अस्तित्व या नास्तित्व इत्यादि कोई एक धर्म) जो अध्यवसाय विशेष में प्रकार बनता हैं, उस अध्यवसाय विशेष को नय कहा जाता हैं । नय ज्ञान में वस्तु विशेष्य बनती हैं और वस्तु का एक धर्म प्रकार बनता है । इसलिए "कथंचित् अस्तित्ववान् घटः" ऐसा जो ज्ञान होता है, वह नय ज्ञान है और उसका आकार (पहले बताये अनुसार) "स्यादस्ति घटः" हैं । सारांश में एक धर्म प्रकारक ज्ञान विशेष को ही नय कहा जाता हैं । (स्यात् = कथंचित्) (२) साधकत्वं तथाविधप्रतिपत्तिजनकत्वम् । साधक अर्थात् वैसे प्रकार के (पहले बताया उस प्रकार के) ज्ञान का जनक (अध्यवसाय विशेष) को नय कहा जाता है। प्रमाण से प्रतिपन्न ऐसी अनंतधर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म के ज्ञान के जनक अध्यवसाय विशेष को नय कहा जाता हैं । जैसि कि, एक घटादि वस्तु में भिन्न भिन्न अपेक्षा से नित्यत्व-अनित्यत्व, अस्तित्व-नास्तित्व, सत्त्व-असत्त्व, एकत्व-अनेकत्व आदि अनंता धर्म रहते हैं, उसमें से किसी एक विवक्षित धर्म के ज्ञान के जनक अध्यवसाय विशेष को नय कहा जाता हैं ।। (३) निवर्तकत्वं अनिवर्तमाननिश्चितस्वाभिप्रायकत्वम् । अपने जो अभिप्राय से अध्यवसाय विशेष उत्पन्न होता है, उस निश्चित अभिप्राय की निवृत्ति जहाँ नहीं होती हैं, ऐसे अध्यवसाय विशेष को नय कहा जाता है । जैसे कि, अपने 'द्रव्य' के अभिप्राय से जो “नित्यो घट:", ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न होता है, उस द्रव्य के अभिप्राय की निवृत्ति “नित्यो घट:" ऐसे अध्यवसाय में नहीं होती है, इसलिए उस अध्यवसाय विशेष को नय कहा जाता है । कहने का आशय यह है कि, 'द्रव्य' की अपेक्षा से घट नित्य है, ऐसा वक्ता का अभिप्राय “नित्यो घटः" ऐसे अध्यवसायरूप में निवृत्त नहीं होता हैं । परन्तु ऐसे अभिप्राय का निर्वाह होता है, इसलिए ऐसे अध्यवसाय विशेष को नय कहा जाता है। (४) निर्भासकत्वं शृङ्गग्राहिकया वस्त्वंशज्ञापकत्वम् । “शृंगग्राहिका" न्याय से वस्तु के एक अंश के ज्ञापक को निर्भासक कहा जाता है - यह भी नय का एक लक्षण हैं। "शृंगग्राहिका" न्याय इस प्रकार हैं - अनेक ग्वाले अपनी अपनी गाय को लेकर एक खुले मेदान में छोड़ देते हैं। सामान्यतः वे गाये समान लगती होती हैं । इसलिए सामान्य लोगो को कौन-सी गाय किस ग्वाले की है उसका अंदाज नहीं आता है, परन्तु ग्वाले को तो अपनी गायकी विशेषता मालूम होती हैं । इसलिए गोष्ठ (गाय के गोठा) की ओर वापस आते वक्त वह ग्वाला अपनी गाय की सिंग पकडकर गोष्ठ की दिशा में ले जाता हैं - यह शृंगग्राहिका न्याय हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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