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________________ ४३०/१०५३ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ वह (४) केवलदर्शन, यहाँ सामान्य धर्म के उपयोग का कारण वह दर्शन और विशेष धर्म के उपयोग का कारण वह ज्ञान । १०. लेश्या मार्गणा ६ : लेश्या - आत्मा का परिणाम है । उसकी अल्पता-तीव्रता तथा शुभाशुभपन से सामान्यतः छ प्रकार होते हैं। परिणाम वह भाव लेश्या और उसमें निमित्तभूत कृष्णादि पुद्गल वह द्रव्य लेश्या । यहाँ द्रव्य लेश्या पुद्गल स्वरूप होने से शुभ वर्ण, शुभ गंध, शुभ रस और शुभ स्पर्शवाली हो वह शुभलेश्या और अशुभवर्णादि युक्त हो वह अशुभलेश्या है । __तथा पुद्गल स्वरूप द्रव्यलेश्या यद्यपि वर्ण, गंध, रस और स्पर्श ये चारो गुण युक्त हैं । तो भी शास्त्र में वर्ण की मुख्यता से वर्ण भेद से लेश्या के भी ६ भेद कहे है, वह इस अनुसार से कृष्णवर्ण युक्त पुद्गलमय (१) कृष्णलेश्या नील (हरे) वर्ण के पुद्गलवाली (२) नील लेश्या, हरा और लाल ये दो वर्ण की मिश्रतावाली अथवा कबूतर के समान वर्णवाली (३) कापोतलेश्या, लाल वर्णयुक्त पुद्गलवाली (४) तेजोलेश्या, पीले वर्णवाली (५) पीतलेश्या और श्वेत वर्णवाली शुक्ललेश्या । ये छ: लेश्याओं मे से पहली ३ अशुभ परिणामवाली होने से अशुभ, बाकी की ३ शुभ परिणामवाली होने से शुभलेश्या हैं तथा क्रमश: छ: लेश्यायें अधिक अधिक विशुद्ध परिणामवाली हैं, इन ६ लेश्याओं के ६ प्रकार के परिणाम के विषय में शास्त्र में जम्बूफल (जामुन) खानेवाले ६ मुसाफिरो (पथिको) का दृष्टान्त कहा है । वह इस प्रकार से - _जंबूफल भक्षक ६ मुसाफिरों का दृष्टान्त : किसी नगर की ओर जाते अरण्य में आ गये भूखे हुए ६ मुसाफिरोने पके हुए जामुन से झुका हुआ एक महान् जामुन वृक्ष देखकर वे परस्पर जामुन खाने का विचार करने लगे । उसमें से पहलेने कहा कि, “इस पूरे वृक्ष को ही मूल में से उखाडकर नीचे गीरा दे (ये कृष्णलेश्या का परिणामी)", दूसरेने कहा "बडी बडी शाखाये तोडकर नीचे गिरा दे (ये नीललेश्या का परिणामी)" तीसरेंने कहा, "छोटी छोटी शाखायें नीचे गिरा दे (ये कापोतलेश्या का परिणामी), चौथेने कहा, “जामुन के गुच्छे तोडकर नीचे गिरा दे, (थे तेजोलेश्या का परिणामी)" पाँचवेंने कहा कि, 'गुच्छो में से पके हुए जामुन ही चॅट चूँट कर नीचे डाले (ये पद्मलेश्या का परिणामी)' और छठेने कहा कि, “जामुन खाकर क्षुधा मिटाना यही हमारा उद्देश हैं, तो ये नीचे भूमि के ऊपर स्वतः गिरे हुए जामुन ही बिनकर खाये, कि जिससे वृक्ष छेदन का पाप करने की आवश्यकता भी न रहे” (ये शुक्ललेश्या के परिणामवाला जानना ।) इस प्रकार से क्रमशः विशुद्ध-विशुद्ध लेश्या परिणाम इस दृष्टान्त के अनुसार से सोचे । यहाँ छ: चोरो का भी दृष्टान्त सोचे । ११. भव्य मार्गणा - २. जगत में कछ जीव देव-गरु-धर्म की सामग्री मिलने से कर्मरहित होकर मोक्षपद पा सके ऐसी योग्यतावाले हैं, वे सभी भव्य कहे जाते हैं और कोई कोई मूंग के कौगरु जितने और जैसे अल्प जीव ऐसे भी है, कि जो देव-गुरु-धर्म की संपूर्ण सामग्री मिलने पर भी कर्मरहित होकर मोक्षपद नहीं पा सकते हैं, ऐसे सभी जीव अभव्य(62) कहे जाते हैं । यह भव्यत्व तथा अभव्यत्व जीव का अनादि स्वभाव हैं । परन्तु सामग्री के बल से नया स्वभाव उत्पन्न नहीं होता हैं । तथा अभव्य जीव तो आटे में नमक जितने अल्प ही है और भव्य जीव उससे अनन्त गने 62.अभव्य जीव मोक्षपद नहीं पाते, इतना ही नही, परन्तु नीचे लिखे हुए उत्तम भाव भी नहीं पाते । इन्द्रत्व, अनुत्तर देवत्व, चक्रवर्तित्व, वासुदेवत्व, प्रतिवासुदेवत्व, बलदेवत्व, नारदत्व, केवलि हस्त से दीक्षा, गणधर हस्त से दीक्षा, संवत्सरी दान, शासन, अधिष्ठायक देव-देवीत्व, लोकान्तिक देवत्व, युगलिक देवो का अधिपतित्व, त्रायस्त्रिंशत् देवत्व, परमाधामीत्व, युगलिक मनुष्यत्व, पूर्वधर लब्धि, आहारक लब्धि, पुलाक लब्धि, संभिन्न श्रोतोलब्धि, चारण लब्धि, मधुसर्पि लब्धि, क्षीरासव लब्धि, अक्षीण महानसी लब्धि, जिनेन्द्र प्रतिमा को उपयोगी पृथ्वीकायादित्व, चक्रवर्ति के १४ रत्नत्व, सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, शुक्ल पक्षीत्व, जिनेन्द्र का मातृ - पितृत्व, युगप्रधानत्व इत्यादि । (इति अभव्यकुलके।) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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