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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट १, जैनदर्शन का विशेषार्थ ४३१/१०५४ अधिक हैं। पुन: भव्य जीवो में भी बहोत ऐसे जीव है कि, जो किसी काल में त्रसपन पानेवाले ही नहीं है, परन्तु सूक्ष्म दय में ही अनादि अनन्तकाल तक जन्म मरण किया करेंगे, जिससे मोक्षपद नहीं पानेवाले हैं, परन्तु स्वभाव से (योग्यता से) तो वे भव्य ही हैं, कहा हैं कि, अस्थि अणंता जीवा, जेहिं न पत्तो तसाइ परिणामो, उववज्जंति चयंति अ, पुणोवि तत्थेव तत्थेव ।।१।। अर्थ : ऐसे अनन्तान्त जीव है कि जिन्होंने त्रसादि (द्वीन्द्रियादि) परिणाम प्राप्त नहीं किया और पुनः पुनः (बारबार) वही के वही (सूक्ष्म एकेन्द्रियत्व में ही) जन्म लेते है और मृत्यु प्राप्त करते है ।।१।। १२. सम्यकत्व मार्गणा - ६ : उपशम, क्षायिक, क्षायोपशमिक, मिश्र, सास्वादन और मिथ्यात्व - इन छ: भावो का इस मार्गणा में अन्तर्भाव होता हैं । पशम सम्यकत्व - अनन्तानबन्धि क्रोध, मान, माया और लोभ तथा सम्यकत्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय ये तीन दर्शन मोहनीय । ये सात कर्मप्रकृतियों की अंतर्मुहूर्त तक बिलकुल उपशान्ति होने से जो सम्यग्भाव प्रकट होता है, उस समय ये सात कर्म आत्मा के साथ होते हैं, परन्तु दबे हुए अग्नि की तरह शांत पडे हुए होने से अपनी असर नहीं बता सकते है । यह सम्यक्त्व एक भव में २ बार और पूरे संसार चक्र में ५ बार प्राप्त हो सकता हैं । अंतर्मुहुर्त से ज्यादा समय यह सम्यक्त्व नहीं टिकता और ज्यादातर निरतिचार होता हैं । (२) क्षायिक सम्यक्त्व - उपर कही हुई सातों कर्म प्रकृतियों का बिलकुल क्षय होने से यह सम्यक्त्व प्रकट होता है । उसका काल सादि अनंत है, यह सम्यक्त्व निरतिचार होता हैं । (३) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व - उपर कही हुई सात प्रकृति में से छ: को उपशांति हो और केवल सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का उदय होकर क्षय होता है, इसलिए उसका नाम क्षय और उपशम युक्त सम्यक्त्व कहा है, उसका ज्यादा से ज्यादा समय ६६ सागरोपम काल हैं । इस सम्यक्त्व को शंकाआकांक्षा इत्यादि अतिचारो का इतने तक संभव है । (४) मिश्र सम्यकत्व - उपर कही हई सात में से केवल मिश्र मोहनीय कर्म की प्रकृति उदय में हो, बाकी की उपशान्त हो, उस समय जो सम्यग मिथ्यारूप भाव केवल अंतर्महर्त तक हो, वह मिश्र सम्यक्त्व, इसलिए जैन धर्म के उपर न राग - न द्वेष ऐसी स्थिति होती है । (५) सास्वादन सम्यक्त्व - उपर बताये अनुसार अंतर्मुहुर्त के समयवाले उपशम सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व तक पहुँचने से पहले एक समय से लेकर ६ आवलिका तक सम्यक्त्व के यत्किंचित् - कुछ स्वादरूप यह सम्यक्त्व होता है, बाद में तुरंत ही मिथ्यात्व ही है, जैसे क्षीर का भोजन करके किसी भी प्रकार के उत्क्लेश से वमन हो जाये, फिर भी उसको क्षीर का जैसे कुछ स्वाद आता है, इस प्रकार स = सहित, आस्वाद = स्वाद । स्वाद सहित वह सास्वादन। (६) मिथ्यात्व - अनंतानुबंधीय कषाय और मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से जो मिथ्यात्व प्रकट होता है, वह मिथ्यात्व है । सम्यक्त्व मार्गणा में सम्यकत्व शब्द सम्यग् और मिथ्या इन दोनों भाव का उपलक्षण से संग्रह करनेवाला हैं । जैसे भव्य, संज्ञि, आहारी नाम फिर भी अभव्य, असंज्ञि-अणाहारी इत्यादि का संग्रह होता हैं । ऐसा बहोत मार्गणाओं में समजना । १३. संज्ञि मार्गणा २ - मनः पर्याप्ति से अथवा दीर्घकालिकी संज्ञा से विशिष्ट मनोविज्ञानवाले जीव वह संज्ञि और विशिष्ट मनोविज्ञान रहित वह असंज्ञि । १४. आहारी मार्गणा २ - भवधारणीय शरीर के लायक ओज(63) आहार, लोम(64) आहार और कवलाहार(65) ये तीन प्रकार में से यथासंभव आहारवाले वह १ आहारी और ये तीनों आहार रहित, वह अनाहारी । 63. अपर्याप्त अवस्था में तैजस् कार्मण शरीर द्वारा ग्रहण किया जाता आहार वह ओजआहार । 64.शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद त्वचा - शरीर द्वारा ग्रहण किया जाता आहार वह लोमआहार । 65. कौल (कवल) से मुख द्वारा लिया जाता आहार वह कवल आहार । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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