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षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
४२९/१०५२ ५. वेद मार्गणा ३ - स्त्रीजाति को होता पुरुष संग का अभिलाष वह स्त्रीवेद, पुरुष जाति को होता स्त्रीसंग का अभिलाष वह पुरुषवेद और तीसरी जाति को होता स्त्री तथा पुरुष इन दोनों के संग का अभिलाष वह नपुंसकवेद ।
६. कषाय मार्गणा ४ - खेद, ईर्ष्या, गुस्से की वृत्ति वह क्रोध, गर्व की वृत्ति वह मान, छल, कपट की वृत्ति वह माया और इच्छा, तृष्णा, ममता की वृत्ति वह लोभ । ये चारो वृत्तियाँ ऐसी है कि वे प्रकट हो तब अवश्य नये कर्म बंधते ही है। कर्मबंध का बहोत आधार उसके उपर है । इसलिए उसे कषाय कहा जाता है । ___७. ज्ञान मार्गणा ८ - मन और इन्द्रियों के पदार्थ के साथ के संबंध से जो (अर्थ संज्ञा रहित हो तो भी) यथार्थ ज्ञान हो वह (१) मतिज्ञान तथा मन और इन्द्रियों के संबंध से श्रुत के अनुसार (शास्त्रानुसारी) अर्थ की संज्ञावाला जो यथार्थज्ञान हो वह (२) श्रुतज्ञान, अमुक मर्यादा तक का रुपी पदार्थ का (पुद्गल द्रव्य का) जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहाय बिना आत्मसाक्षात् - प्रत्यक्ष हो वह (३) अवधिज्ञान, २।। (ढाई) द्वीप में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणीयों के मनोगत विचार जाना जा सके, ऐसा ज्ञान वह (४) मनः पर्यवज्ञान है । यह मन:पर्यवज्ञान में आत्मा को इन्द्रिय तथा मन की आवश्यकता नहीं होती हैं । इसलिए वह भी आत्मसाक्षात् ज्ञान हैं तथा सर्व पदार्थ का संपूर्ण ज्ञान वह (५) केवलज्ञान यह ज्ञान भी मन और इन्द्रियों के बिना आत्मसाक्षात् होता हैं ।
ये ५ प्रकार के ज्ञान हैं और ३ प्रकार के अज्ञान, वह भी ज्ञान के भेद में माना जाता हैं, इसलिए ८ ज्ञान कहे जाते हैं। अज्ञान में अ - उल्टा विपरीत अथवा हीन कक्षा का ज्ञान वह अज्ञान कहा जाता हैं । परन्तु (अ अर्थात् अभाव ऐसे अर्थ से) ज्ञान का अभाव वह अज्ञान ऐसा नहीं, यह ज्ञान मिथ्यात्व युक्त होने से अज्ञान कहा जाता हैं, इसलिए मिथ्यादृष्टिओं का ज्ञान वह अज्ञान और सम्यग्दृष्टिओं का ज्ञान वह ज्ञान कहा जाता हैं । __प्रश्न : सम्यग्दृष्टि की तरह मिथ्यादृष्टि भी “घट को घट", "पट को पट" इत्यादि वस्तु के विद्यमान धर्म कहते हैं, परन्तु “घट को पट” तथा “पट को घट" ऐसे विपरीत समजते और कहते भी नहीं है, तो भी एक को ज्ञान कहना और दूसरे को अज्ञान कहना यह पक्षपात क्यों ?
उत्तर : उसमें पक्षपात नहीं हैं । परन्तु सत्य वस्तुस्थिति हैं । घडा जैसे एक दृष्टि से घडा है । वैसे दूसरी दृष्टि से उसके दूसरे अनेक स्वरूप हैं । मिथ्यादृष्टिवाले के ध्यान में ये दूसरे अनेक स्वरूप नहीं होते हैं और सम्यग्दृष्टि जिस समय घडे को घडा कहते हैं । उस समय उसके दूसरे स्वरूप उसके ख्याल में होते हैं और मिथ्यादृष्टि घडे को घडा ही कहते हैं - उसका अर्थ यह हैं कि दूसरे स्वरूपो का उसका अज्ञान हैं । इसलिए घडे को जैसा हैं, ऐसा वह जानता नहीं हैं। इसी कारण से व्यवहार में बहोत सच्ची वस्तु को मिथ्या और मिथ्या को सच्ची मानने लगते हैं । जिससे अनर्थ परंपरा बढती हैं, दृष्टि अर्थात खयाल - उद्देश । मिथ्या ख्याल या उद्देशवाला मनुष्य वह मिथ्यादृष्टि, यह भेद सहज समज में आ जाये ऐसा हैं ।
मिथ्यादृष्टि के मति, श्रुत और अवधिज्ञान; मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभङ्गज्ञान कहा जाता हैं ? वि = विरुद्ध, भङ्ग = बोघ जिस में है, वह विभङ्गज्ञान ।।
८. संयम मार्गणा ७ - संवरतत्त्व के पाँच चारित्र के अर्थ में कही हुई हैं, वहाँ से जानना । सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय, यथाख्यात, देशविरति और अविरति ।
९. दर्शन मार्गणा ८ - चक्षु से होता सामान्य धर्म का बोध वह (१) चक्षुर्दर्शन, चक्षु के सिवा ४ इन्द्रियाँ और मन इन पाँच से होता सामान्य धर्म का बोध वह (२) अचक्षुर्दर्शन, अवधिज्ञानी को रूपी पदार्थ जानने में होता सामान्य धर्म का बोध वह (३) अवधिदर्शन और केवलज्ञानी को सर्व पदार्थ के सर्व भाव जानने में होता सामान्य धर्म का बोध
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