SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२० / १०४३ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ हैं, वह तथा श्रावक का शिक्षाव्रत नाम का सामायिक व्रत, पौषध, प्रतिक्रमण इत्यादि इत्वर कथिक सामायिक चारित्र और मध्य के २२ तीर्थंकर के शासन में तथा महाविदेह में सर्वदा प्रथम लघु दीक्षा और पुनः बडी दीक्षा ऐसा नहीं हैं । प्रथम से ही निरतिचार चारित्र का पालन ( = बडी दीक्षा) होती हैं, इसलिए उसे यावत्कथिक सामायिक चारित्र ( अर्थात् यावज्जीव तक का सामायिक चारित्र) कहा जाता हैं । वे दो चारित्र में इत्वरिक सामायिक चारित्र सातिचार और उत्कृष्ट ६ मास का है और यावत्कथिक वह निरतिचार (अल्प अतिचार) तथा यावज्जीव तक का माना जाता । इस सामायिक चारित्र का लाभ हुए बिना शेष ४ चारित्रों का लाभ नहीं होता, इसलिए सर्व प्रथम सामायिक चारित्र कहा हैं । अथवा आगे कहे जानेवाले चारो चारित्र वस्तुतः सामायिक चारित्र के ही विशेष भेद रूप हैं । तो भी यहाँ प्राथमिक विशुद्धि को ही सामायिक चारित्र नाम दिया हुआ हैं । (२) छेदोपस्थापनीय चारित्र : पूर्व चारित्र पर्याय का (चारित्र काल का छेद करके, पुनः महाव्रतो का उपस्थापन = आरोपण करना वह छेदोपस्थापन चारित्र । वह दो प्रकार से है । १. मुनिने मूलगुण का ( महाव्रत का ) घात किया हो तो पूर्व में (पहले) पालन किये हुए दीक्षा पर्याय का छेद करके, पुनः चारित्र उच्चरण करना, वह छेदप्रायश्चितवाला 'सातिचार छेदोपस्थानिक' और लघु दीक्षावाले मुनि को 'छज्जीवनिकाय अध्ययन पढने के बाद उत्कृष्ट से ६ मास बाद बडी दीक्षा देना वह अथवा तो एक तीर्थंकर के मुनि को दूसरे तीर्थंकर के शासन में प्रवेश करना हो तब भी मुनि को पुनः चारित्र का उच्चरण करना पडता है, जैसे श्री पार्श्वनाथ प्रभु के मुनि चार महाव्रत का शासन छोडकर श्री महावीर का पाँच महाव्रतवाला शासन अंगीकार करे, वह तीर्थसंक्रान्तिरूप, ऐसे दो प्रकार से निरतिचार छेदोपस्थानीय चारित्र जाने । यह छेदोपस्थापनीय चारित्र भरतादि १० क्षेत्र में पहले और अंतिम जिनेश्वर के शासन में होते हैं । परन्तु मध्य के २२ तीर्थंकर के शासन में और महाविदेह में सर्वथा यह छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं होता हैं । (३) परिहार विशुद्धि चारित्र : परिहार अर्थात् त्याग । अर्थात् गच्छ के त्यागवाला जो तप विशेष और उससे होती चारित्र की विशुद्धि - विशेष शुद्धि, उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहा जाता है, वह इस प्रकार से है स्थविरकल्पी मुनिओं के गच्छ में से गुरु की आज्ञा पाकर ९ साधु गच्छ से बाहर निकलकर, केवलि भगवान के पास जाकर अथवा श्री गणधरादि के पास अथवा पहले परिहार कल्प अंगीकार किया हो ऐसे साधु के पास जाकर, परिहार कल्प अंगीकार करे, उसमें चार साधु परिहारक हो अर्थात् ६ मास तप करे, दूसरे चार साधु उन चार तपस्वी की वैयावच्च करनेवाले हो और एक साधु वाचनाचार्य गुरु हो, उन परिहारक चार मुनि का ६ मास के बाद तप जब पूर्ण हो, तब वैयावच्च करनेवाले चार मुनि ६ मास तप करे, पूर्ण हुई तपस्यावाले चार मुनि वैयावच्च करनेवाले हो, इस प्रकार दूसरे छ मास का तप पूर्ण होने पर पुनः वाचनाचार्य स्वयं ६ मास का तप करे और जघन्य से १ तथा उत्कृष्ट ७ साधु वैयावच्च करनेवाले हो और १ वाचनाचार्य हो इस प्रकार १८ मास परिहार कल्प का तप पूर्ण होता है .1 (50) 50. परिहार कल्प के तपविधि इत्यादि ग्रीष्मकाल में जघन्य चौथ भक्त (१ उपवास), मध्यम षष्टभक्त (२ उपवास) और उत्कृष्ट अष्टमभक्त (३ उपवास), शिशिरकाल में जघन्य षष्ट भक्त, मध्यम अष्टम भक्त और उत्कृष्ट दशमभक्त (४ उपवास), तथा वर्षाकाल में जघन्य अष्टमभक्त, मध्यम दशमभक्त और उत्कृष्ट द्वादशभक्त (५ उपवास) इस प्रकार चार परिहारी साधुओं की तपश्चर्या जाने और अनुपरिहारी तथा वाचनाचार्य तो तप प्रवेश के अतिरिक्त काल में सर्वदा आचाम्ल (आयंबिल) करते हैं और तपः प्रवेश समय पूर्वोक्त तपश्चर्या करते हैं । यह परिहार कल्प १८ मास में समाप्त होने के बाद वे मुनि पुनः वही परिहार कल्प आरंभ करे अथवा जिन कल्पी हो ( अर्थात् जिनेन्द्र भगवंत का अनुसरण करती उत्सर्ग मार्ग की उत्कृष्ट क्रियावाला कल्प वह जिनकल्प अंगीकार करे) अथवा स्थविर कल्प में (अपवाद मार्ग की सामाचारीवाले गच्छ में) प्रवेश करे । यह कल्प अंगीकार करनेवाले प्रथम संघयणी, पूर्वधर लब्धिवाले, ऐसे नपुंसकवेदी अथवा पुरुषवेदी ( परन्तु स्त्रीवेदी नहीं ऐसे ) मुनि होते हैं । ये मुनि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy