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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
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संवर का आचरण करूँ तो ठीक “इत्यादि चिंतन करना वह । (९) निर्जरा-भावना : “आगे कहे जानेवाले निर्जरा तत्त्व के १२ तप के भेदो के स्वरूप का चिंतन करे और अनादिकाल के गाढ कर्मो का नाश निर्ज्जरा के बिना हो सके ऐसा नही हैं । इसलिए यथाशक्ति उसका आश्रय लूंगा तो ही किसी न किसी समय मेरे आत्मा का निस्तार होगा, इसलिए यथाशक्ति निर्जरा का सेवन करूँ तो ठीक ?" इत्यादि चिंतन करे । (१०) लोकस्वभाव भावना : ( 44 ) कमर के उपर दो हाथ रखकर, दोनों पैर फैलाकर खडे हुए पुरुष की आकृति समान यह षड्द्रव्यात्मक लोक हैं । उसमें पहले कहे हुए छ: द्रव्य भरे हुए हैं । अथवा वे छः द्रव्य रूप ही लोक हैं । प्रत्येक द्रव्यो में अनन्तपर्याय ( 45 ) हैं । द्रव्य स्वयं स्थिर हैं और पर्यायो की उत्पत्ति और नाश हुआ ही करता हैं अर्थात् प्रत्येक द्रव्यो में प्रत्येक समय उत्पत्ति, नाश और स्थिरताध्रौव्य (46) ये तीन धर्म होते हैं। जिस समय पर अमुक कोई भी एक पर्याय उत्पन्न होता हैं, वही समय पर अमुक कोई भी एक पर्याय नाश होता ही है और द्रव्य तो तीनो काल में ध्रुव स्थिर है ही । इस प्रकार छः द्रव्यो के परस्पर के संबंध से एक प्रकार की विचित्र ऊथलपुथलो से भरपूर इस लोक का - जगत् का अद्भूत और अकलित स्वरूप सोचते-सोचते भी सचमुच तन्मय हो जाने से आत्मा रागद्वेष से मुक्त हो जाता हैं, इसलिए उसका अद्भूत समय स्वरूप स्याद्वाद दृष्टि से सोचे और उल्टे मोडे हुए सैकडे तलवेवाले समतल गमले के आकार का अधोलोक हैं, थाली के आकार का तिर्च्छालोक हैं और मृदंग के आकार का उर्ध्वलोक हैं । वह लोक द्रव्य से शाश्वत हैं और पर्याय से अशाश्वत हैं । " ऐसा चिंतन करना वह । (११) बोधिदुर्लभ - भावना : “ अनादि काल से संसार में चक्रवत् भ्रमण करते जीवो को सम्यक्त्वादि ३ रत्न की प्राप्ति महादुर्लभ हैं ? अनन्त बार चक्रवर्तिपन आदि महापदवीयाँ प्राप्त हुई, परन्तु सम्यक्त्वादि प्राप्त न हुआ । उपरांत अकाम निर्जरा द्वारा क्रमशः मनुष्यत्व, निरोगीत्व, आर्यक्षेत्र और धर्म श्रवणादि सामग्रीयाँ प्राप्त हुई, तो भी सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति न हुई, इसलिए सम्यक्त्व धर्म की प्राप्ति अति दुर्लभ हैं" इत्यादि चिंतन करना वह बोधिदुर्लभ भावना । (१२) धर्मसाधक अर्हत् आदि दुर्लभ : धर्म के साधक - उत्पादक उपदेशक ऐसे अरिहंत आदिक की प्राप्ति महादुर्लभ हैं, कहा है कि तित्थयर गणहरो केवली व पत्तेयबुद्ध पुव्वधरो पंचविहायारधरो, दुल्लभो आयरियओऽवि । । १ । । अर्थ : तीर्थंकर गणधर केवल प्रत्येक बुद्ध पूर्वधर और पाँच प्रकार के आचार को धारण करनेवाले आचार्य भी इस लोक में प्राप्त होना महादुर्लभ है । । १ । । इत्यादि चितवन करना वह अर्हत् दुर्लभ भावना अथवा धर्मभावना कही जाती है।
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तथा पाँच महाव्रत की प्रत्येक की पाँच पाँच मिलकर २५ भावनायें ( 47 ) भी इन १२ भावनाओं में अंतर्गत होती है। तथा ये १२ भावनाओं में (48) मैत्री प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ ये चार भावना मिलाने से १६ भावना भी होती है। उसका विचार अन्य ग्रंथो से जाने ।
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पाँच चारित्र : (49) (१) सामायिक चारित्र : सम अर्थात् ज्ञान-दर्शन- चारित्र का आय अर्थात् लाभ वह समाय और व्याकरण के नियम से (तद्धित का 'इक' प्रत्यय लगने से ) सामायिक शब्द होता हैं । अनादिकाल की आत्मा की विषम स्थिति में से सम स्थिति में लाने का साधन वह सामायिक चारित्र । यह उसकी मुख्य व्याख्या हैं । सावद्य योगो का त्याग और निरवद्य योगो का संवर निर्जरा का सेवन = आत्म जागृति, वे समस्थिति के साधन है, उसके इत्वर कथिक और यावत् कथिक दो भेद हैं । भरतादि १० क्षेत्र में पहले और अंतिम जिनेश्वर के शासन में प्रथम लघु दीक्षा दी जाती 47.२५ भावनाओं का स्वरूप योगशास्त्रवृत्ति आदिक ग्रंथो से जाने ।। 48. सर्व जीव मित्र समान हैं, वह मैत्री भावना, पर जीव को
सुखी देखकर प्रसन्न होना यह प्रमोद भावना, दुःखी जीवों के प्रति अनुकंपा करुणा लाना वह कारुण्य भावना और पापी, अधर्मी जीवो के प्रति खेद न करना और खुश भी न होना, वह माध्यस्थ भावना । 49. सामाइअत्थ पढमं, छेओवट्ठावणं भवे बीअं । परिहार विसुद्धीअं, सुहुमं तह संपरायं च ।। ३२ ।। (नव.प्र.)
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