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षड्दर्शन समुचय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
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कषाय,
(४) सूक्ष्म संपराय चारित्र : सूक्ष्म अर्थात् ( 51 ) किट्टिरूप ( चूर्णरूप ) हुआ जो अति जघन्य संपराय अर्थात् लोभ उसके क्षयरूप जो चारित्र वह सूक्ष्म संपराय चारित्र कहा जाता है। क्रोध, मान और माया ये तीन कषाय क्षय होने के बाद अर्थात् २८ मोहनीय में से सं. लोभ के बिना २७ मोहनीय क्षय होने के बाद और संज्वलन लोभ में भी बादर संज्वलन लोभ का उदय विनाश पाने के बाद जब केवल एक सूक्ष्म लोभ का ही उदय होता है, तब १० सूक्ष्म संपराय गुणस्थानक में रहते जीव को सूक्ष्मसंपराय चारित्र कहा जाता है । इस चारित्र के दो भेद हैं, उसमें (१) उपशमश्रेणी से गिरते जीव को ११वें गुणस्थानक पर पतित दशा का अध्यवसाय होने से संक्लिश्यमान सूक्ष्मसंपराय चारित्र और (२) उपशम श्रेणी में चढते हुए तथा क्षपक श्रेणी से चढते जीव को १० वे गुणस्थानक पर विशुद्ध दशा के अध्यवसाय होने से विशुध्यमान सूक्ष्मसंपराय चारित्र होता है ।
(५) यथाख्यात चारित्र : (52) जैनशास्त्र में जैसे प्रकार का चारित्र कहा हैं, ऐसा अथवा सर्व जीवलोक में प्रसिद्ध (तुरंत मोक्ष देनेवाला होने से मोक्ष के मुख्य कारण के रूप में प्रसिद्ध चारित्र हैं, उसे यथाख्यात चारित्र कहा जाता है। जिसका आचरण करके सुविहित मुनि भगवंतो मोक्ष की ओर जाते हैं ।
निर्जरा तत्त्व(53) और उसके प्रकार आत्मा के उपर से कर्मों का अलग होना, उसे निर्जरा कही जाती है। बारह प्रकार के तप से कर्मों की निर्जरा होती है। इसलिए बारह प्रकार के तप को ही यहाँ निर्जरा कही हैं। तप के १२ भेद से निर्जरा के भी बारह भेद है । निर्जरा के द्रव्य और भाव ऐसे दो प्रकार भी है । कर्मपुद्गलो को आत्मप्रदेशो में से दूर करना ( अलग करना) वह द्रव्य निर्जरा और जिससे उन कर्मपुद्गलो का नाश हो, ऐसे आत्मा के तपश्चर्यादिवाले शुद्ध परिणाम वह भाव निर्जरा । निर्जरा के सकाम और अकाम ऐसे दो भेद भी पडते हैं । कर्मनाश की इच्छापूर्वक परिषहादि कष्ट सहन करने से जो निर्जरा हो वह सकाम निर्जरा कही जाती हैं और कर्मनाश की इच्छा के बिना आये हुए कष्टो को सहन करने से जो निर्जरा हो उसे अकाम निर्जरा कही जाती है । उसके बारह प्रकार अब देखेंगे ।
छ प्रकार का बाह्य तप:(54) (१) अनशन तप, अन् अर्थात् नहीं अशन अर्थात् आहार अर्थात् सिद्धान्त विधि से आहार का त्याग करना, वह (55) अनशन तप कहा जाता है, परन्तु व्रत प्रत्याख्यान की अपेक्षा रहित भूखे रहने मात्र से अनशन तप नहीं होता हैं, उसे तो लंघन मात्र कहा जाता हैं । (२) ऊनौदरिका तपऊन अर्थात् न्यून औदारिका - उदरपूर्ति करना वह । यहाँ उपकरण की न्यूनता करे और क्षुधा से न्यून आहार करना वह द्रव्य ऊनौदरिका तथा राग
आँख में पड़ा हुआ तृण भी बाहर न निकाले अपवाद मार्ग का आरंभ न करे, तीसरे प्रहर में भिक्षाटन करे, भिक्षा सिवा के समय में कायोत्सर्ग में रहे, किसी को दीक्षा न दे, परन्तु उपदेश दे, नये सिद्धान्त न पढे, परन्तु प्रथम के पढे हुए का स्मरण करे, इत्यादि विशेष सामाचारी ग्रन्थान्तर में से जाने । इस चारित्र की विशुद्धि प्रथम के दो चारित्र की विशुद्धि से अधिक जाने और पूर्वोक्त दो चारित्र के अध्यवसायो से उपर इस चारित्र के अध्यवसाय (आत्मा के विशुद्ध परिणाम) असंख्य लोक के प्रदेश प्रमाण भिन्न तथा क्रमशः अधिक अधिक विशुद्ध जाने 51. किट्टी करने का विधि ग्रन्थान्तर से जानना 52 तत्तो अ अहकखायं खायं सव्र्व्वमि जीवलोगंमि । जं चरिऊण सुविहिया, वच्चंति अयरामरं ठाणं ।। ३३ ।। (नव. प्र.) 53. बारसविहं तबो णिज्जरा य ।।३४ - पूर्वार्ध ।। (नव.प्र.) 54. अणसणमूणोअरिया, वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होई ।। ३५ ।। ( नव.प्र.) 55. उसके दो भेद हैं १ यावन्नीव और २ इत्वरिक । वहाँ पादपोपगम और भक्त प्रत्याख्यान ये दो अनशन मरण पर्यंत संलेखनापूर्वक किया जाता हैं, उसके भी निहारिम और अनिहारिम ऐसे दो दो भेद हैं, वहाँ अनशन अंगीकार करने के बाद शरीर को नियतस्थान से बाहर निकालना वह निहारिम और उसी स्थानक पर रहना वह अनिहारिम । ये चारो भेद यावज्जीव अनशन के हैं और इत्वरिक अनशन सर्व से और देश से ऐसे दो प्रकार से हैं । वहाँ चारो प्रकार के आहार के त्यागवाला ( चउविहार) उपवास छट्ट अद्रुम आदि सर्व से कहा जाता है और नमक्कारसहियं पोरिसी आदि देश से कहा जाता है ।
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