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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन १७/६४० त्पादकत्वरुपविशेषणसिद्धिः । तथा च विशेषणासिद्धत्वं हेतोः । यदुच्यते-“खातप्रतिपूरितभूनिदर्शनेन कृतकानामात्मनि कृतबुद्धयुत्पादकत्वनियमाभावः” इति तदप्यसत्, तत्राकृत्रिमभूभागादिसारूप्यस्य तदनुत्पादकस्य सद्भावात्तदनुत्पादकस्योपपत्तेःE-18 । न च क्षित्यादावप्यकृत्रिमसंस्थानसारूप्यमस्ति, येनाकृत्रिमत्वबुद्धिरुत्पद्यते, तस्यैवानभ्युपगमात्, अभ्युपगमे चापसिद्धान्तप्रसक्तिः स्यादिति । कृतबुद्ध्युत्पादकत्वरूपविशेषणासिद्धेर्विशेषणासिद्धत्वं हेतोः । व्याख्या का भावानुवाद : इस तरह से कार्य के स्वरुप को सोचने से किसी भी प्रकार से कार्यत्व हेतु सिद्ध नहीं होता है। इसलिए कार्यत्वहेतु असिद्ध है। उपरांत जगत में कदाचित्कवस्तु कार्य के रुप में पहचानी जाती है। अर्थात् लोक में कार्य तो उसको कहा जाता है कि जो कभी भी उत्पन्न हुआ हो । परंतु जगत को ईश्वर की तरह सदा विद्यमान होने से किस तरह से कार्य कहा जायेगा? अर्थात् जैसे ईश्वर अनादि है, यानी कि जिसका प्रारंभ नहीं है और उत्पत्ति नहिं है। वैसे जगत भी अनादि और उत्पन्न हुआ न होने से किस तरह से कार्य कहा जायेगा? ईश्वरवादि (उत्तरपक्ष) : यद्यपि साधारण रुप से परंपरा-प्रवाह की दृष्टि से जगत अनादि कहा जाता है। परंतु इस जगत के अंतर्गत रहनेवाले वृक्ष, घटादि आदि (विशेषरुप से विचार करने से) सादि तथा कार्यरुप है। क्योंकि जगत का विशेषस्वरुप देखे तो एक उत्पन्न होता है, एक मृत्यु प्राप्त करता है। एक को अंकूर फूटते है, एक मुरझाता है। एक.बालक में से तरुण होता है, एक तरुण में से वृद्ध होता है। इस तरह से विशेषदृष्टि से प्रवाहिजगत कार्यभी कहा जाता है और ये अनगिनत कार्यो को छोडकर जगत जैसा दूसरा है भी क्या ? इस तरह से जगत कार्य भी है और ईश्वर उसके सर्जनहार है। जैन ( उत्तरपक्ष): समस्त जगत प्रवाह की अपेक्षा से अनादि होने पर भी उसके अन्तर्गत वस्तुये नित्य नये नये स्वरुप को धारण करने से (आपकी दृष्टिसे) सादि और कार्यरुप है, तो इस युक्ति से तो स्वयं महेश्वर तथा परमाणु आदि नित्यपदार्थ भी कार्यरुप बन जायेंगे। वह इस तरह से-महेश उत्पन्न नहि होते, अनादि है। परन्तु रहनेवाली बुद्धि, इच्छा इत्यादि तो उत्पन्न होती और नष्ट होती दिखाई देती है। उसी तरह से परमाणु अनादि होने पर भी अग्नि के संयोग से उसके श्यामरुप का लालरंग में परिवर्तन होता दिखाई देता है। इस प्रकार जगत अंतर्गत वृक्षादि कार्यरुप होने से जगत कार्यरुप बन जाता हो, तो महेश अंतर्गत बुद्धि, आदि कार्यरुप होने से महेश भी कार्यरुप बन जायेंगे। इसलिए कार्यरुप महेश की उत्पत्ति दूसरे बुद्धिमान कर्ता से होगी। दूसरे की उत्पत्ति तीसरे से तीसरे की चौथे से वैसे (अप्रामाणिक अनन्त पदार्थो की कल्पनारुप) अनवस्था नामका दोष आयेगा । तथा आपके शास्त्रो में ईश्वर और परमाणु को नित्यद्रव्य माने है। परंतु (E-18) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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