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________________ १८/६४१ षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन आपकी उपरोक्त युक्ति से कार्य सिद्ध होने के कारण अनित्य बन जाने से सिद्धांतविरुद्ध कथन होने से अपसिद्धांत दोष भी आयेगा। अथवा जगत को किसी भी रूप में कार्य मान भी ले, परन्तु आप सामान्यरुप कार्यत्वहेतु से जगत को ईश्वर रचित मानते हो ? या विशेष प्रकार के कार्यत्वरुप हेतु से जगत को ईश्वररचित मानते हो? सामान्यरुप हेतु से जगत्कर्ता के रुप मानोंगे तो ईश्वर में बुद्धिमत्कर्तृत्व की सिद्धि नहीं हो सकेगी, क्योंकि साधारण (सामान्य) रुप कार्यत्व हेतु से तो साधारण कर्ता की सिद्धि हो सकेगी, परंतु विशेष सर्वज्ञकर्ता की सिद्धि नहिं हो सकेगी। क्योंकि साधारण कार्यत्व की साधारण कर्ता के साथ व्याप्ति है। परन्तु साधारण कार्यत्व की ईश्वर जैसे सर्वज्ञत्वादि गुणो से युक्त विशेष कर्ता के साथ व्याप्ति नहि है। इसलिए सामान्य कार्यत्व हेतु से किसी भी कर्ता की सिद्धि हो जाने से आपको इष्ट (इच्छित) ईश्वर की सिद्धि नहिं होती है। इसलिए कार्यत्व हेतु साध्य से विरुद्ध को सिद्ध करता होने से विरुद्ध है तथा कार्य कोई-न-कोई कर्ता से उत्पन्न होता है, यह बात तो सर्वसंमत है। इसलिए आपका सामान्यकार्यत्व हेतु इससे अधिक कुछ भी सिद्ध कर सकता न होने से अकिंचित्कर भी हो जाता है। (कार्य जिन कारणो से उत्पन्न होता है, वह कारण भी उसका कर्ता है। उस कार्यो को भुगतनेवाला जीव भी अपने कर्मो के द्वारा उसका कर्ता हो सकता है।) इसलिए जो कार्य "कृतबुद्धि = ईश्वर ने इसको बनाया" ऐसी कृतबुद्धि उत्पन्न कर सकता है, वही कार्य ईश्वर को अपने कर्ता के रुप में सिद्ध कर सकेगा, सभी कार्य नहिं। उपरांत "कार्य-कार्य सभी एक है - सब कार्य एकसमान है।" ऐसे सारुप्यमात्र से अर्थात् सामान्य कार्यत्व हेतु से भी विशेष ईश्वर को कर्ता सिद्ध करने के लिए प्रयत्न करोंगे तो, कोई मूर्ख धूम और बाष्प में रहा हुआ धुंधलेपन की समानता को आगे करके बाष्प में अग्नि की सिद्धि करने लगेगा। क्योंकि धूम और बाष्प में धुंधलेपन की दृष्टि से समानता है। इस तरह से आत्मा - आत्मा समान है। इस दृष्टि से भी ईश्वर (महेश) में आत्मत्वेन प्रत्येक आत्माओं के साथ समानता होने से ईश्वर भी प्रत्येक आत्माओ की तरह संसारी, असर्वज्ञ, संसार के अकर्ता सिद्ध हो जायेंगे। क्योंकि जो प्रश्न तथा उत्तर आप आपके कार्यत्व सामान्य हेतु के समर्थन में देंगे। वे प्रश्न यहां भी किये जा सकते है। ___ इसलिए बाष्प और धूम में कुछ अंश से समानता होने पर भी जैसे विशेषधूम ही अग्नि का अनुमापक बन सकता है, परन्तु (धुंधलेपन की समानता को आगे करके) बाष्पादि अग्नि का गमक नहीं बनता है। अथवा जिस तरह से आत्मत्वेन ईश्वर तथा अन्य लोग समान होने पर भी अन्य लोग में रहनेवाला कर्मयुक्त आत्मत्व ही संसारित्व और असर्वज्ञत्व की सिद्धि करता है। परन्तु सामान्य आत्मत्व नहि । उसी तरह से पृथ्वी आदि कार्य तथा घटादि कार्यो में कार्यत्वेन (स्थूल दृष्टि से) समानता होने पर भी कोई ऐसी विशेषता माननी पडेगी कि जिससे विशेषकर्ता का अनुमान किया जा सके। इसलिए सामान्य कार्यत्व हेतु ईश्वर को जगत्कर्ता सिद्ध नहीं कर सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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