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________________ ३९०/१०१३ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ में उपपात(3) जन्म से पैदा होनेवाले नारकीय, उपरांत, उपपात शय्या में उपपात जन्म से पैदा होनेवाले देव ये सभी तथा प्रकार के विशिष्ट मनोविज्ञानवाले होने से (दीर्घकालिकी संज्ञावाले होने से) संज्ञि-पंचेन्द्रिय कहे जाते हैं । ___ इस प्रकार एकेन्द्रिय के २ भेद, द्वीन्द्रिय का १ भेद, त्रीन्द्रिय का १ भेद, चतुरिन्द्रिय का १ भेद तथा पंचेन्द्रिय के २ भेद मिलकर ७ भेद हुए, ये सातो भेदवाले जीव अपर्याप्ता और पर्याप्ता ऐसे दो-दो प्रकार के है । जो जीव को जितनी पर्याप्ति आगे कही जायेगी उतनी पर्याप्ति पूर्ण किये बिना मृत्यु प्राप्त करे तो वह अपर्याप्त कहे जाते है और उतनी पर्याप्तियाँ पूर्ण करने के बाद मृत्यु को प्राप्त करे वह पर्याप्त कहे जाते है । यहाँ संक्षेप में इतना ही जाने कि - स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण किये बिना मरनेवाला जीव लब्धिअपर्याप्त कहे जाते हैं, और स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण करके मरनेवाला जीव लब्धिपर्याप्त कहा जाता हैं । वहाँ प्रत्येक अपर्याप्त (अर्थात् लब्धिअपर्याप्त) जीव पहली तीन पर्याप्तियाँ ही पूर्ण कर सकते हैं और चौथी, पांचवीं और छठ्ठीं ये तीनो पर्याप्तियाँ अधूरी ही रहती हैं. तथा पर्याप्त (अर्थात् लब्धिपर्याप्त) जीव तो स्वयोग्य चार, पाँच अथवा छ: पर्याप्तियाँ पूर्ण करने के बाद ही मृत्यु को प्राप्त करता हैं । यहाँ पर्याप्ति-संबंधित विशेष स्वरूप आगे कहा जायेगा । ___ 1 जीव के लक्षण(4) : (१) ज्ञान : ज्ञान, वह मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-अवधिज्ञान-मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान, ये पाँच ज्ञान सम्यग्दृष्टि जीव की अपेक्षा से कहे जाते हैं । क्योंकि सम्यग्दृष्टि का ही जो ज्ञान वह ज्ञान कहा जाता हैं और 'मिथ्यादृष्टि का ज्ञान वह अज्ञान कहा जाता है और वह मिथ्यादृष्टि संबंधित मति अज्ञान-श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान (अर्थात् अवधि संबंधित अज्ञान-विपरित ज्ञान) ये तीनो अज्ञान है । इस प्रकार ५+३=८ प्रकार के ज्ञान है । ज्ञायते परिछिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानम् अर्थात् जिसके द्वारा वस्तु प्रतीत हो, परिच्छेद हो उसे ज्ञान कहा जाता हैं। यहाँ वस्तु में सामान्य धर्म और विशेष धर्म ऐसे दो प्रकार के धर्म है । इन दो प्रकार के धर्म में से जिसके द्वारा विशेष धर्म का ज्ञान हो वह ज्ञान, साकारोपयोग या विशेषोपयोग कहा जाता हैं । यह अमुक है अथवा यह घट वा पट अमुक वर्ण का, अमुक स्थान का, अमुक कर्ता का इत्यादि विशेष धर्म अथवा विशेष आकारवाला जो बोध वह साकारोपयोग आदि ज्ञानोपयोग ही हैं (और सामान्य धर्म को जानने की शक्ति वह दर्शन कही जायेगी) । ये आठ में से कोई भी एक वा अधिक ज्ञान हीनाधिक प्रमाणवाला प्रत्येक जीव को होता ही हैं। परन्तु कोई जीव ज्ञान रहित होता ही नहीं है । उपरांत जीव से अतिरिक्त दूसरे कोई द्रव्य में ज्ञान गुण होता ही नहीं है, इसलिए जहाँ जहाँ ज्ञान वहाँ वहाँ जीव और जहाँ जहाँ जीव वहाँ वहाँ ज्ञान अवश्य होने के कारण से ज्ञान यह जीव का ही गुण हैं, इसलिए जीव का लक्षण ज्ञान कहा हैं । तथा संसारी जीव को वह ज्ञान, ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से हीनाधिक और क्षय से संपूर्ण प्रकट होता हैं । (२) दर्शन : चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये चार प्रकार के दर्शन हैं ।(5) ये चार प्रकार के दर्शन में से एक या अधिक दर्शन हीन वा अधिक प्रमाण में प्रत्येक जीव मात्र को होता है और यह दर्शनगुण भी ज्ञानगुण की तरह अवश्य जीव को ही होता है परन्तु अन्य को होता नहीं है, इसलिए परस्पर अविनाभावी संबंध होने से दर्शन गुण यह जीव का लक्षण है । वस्तु का सामान्य धर्म जानने की शक्ति वह दर्शन अथवा निराकार उपयोग अथवा सामान्य उपयोग कहा जाता हैं । क्योंकि यह घट अमुक वर्ण का, अमुक स्थान का इत्यादि आकारज्ञान नहीं, परन्तु केवल 'यह घट' है ऐसे सामान्य उपयोग होता है इसलिए यह दर्शनगुण निराकार उपयोगरूप हैं अथवा सामान्य उपयोगरूप है । 3. सम्मूर्छन-गर्भज और उपपात ये तीन प्रकार का जन्म है । उसमें उपपात जन्म देव-नारक को होते हैं और बाकी के दो जन्म मनुष्य-तिर्यंच में होते हैं । 4. नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा; वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं ।।५।। (नव.प्र.) 5. आठ प्रकार के ज्ञान और चार प्रकार के दर्शन का विशेष स्वरूप कर्मग्रंथादि अन्य ग्रंथो से जाने ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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