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षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
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दृश्यते वस्त्वनेन सामान्यरूपेणेति दर्शनम् । अर्थात् जिसके द्वारा वस्तु सामान्य रुप से दिखाई दे वह दर्शन और वह दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से अथवा क्षय से होता हैं । यहाँ छद्मस्थ को पहले दर्शनोपयोग अन्तर्मुहूर्त्त तक होता है और उसके बाद अन्तर्मुहूर्त ज्ञानोपयोग होता हैं । इस प्रकार दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग अन्तर्मुहूर्त- अन्तर्मुहूर्त को अन्तर- अन्तर पे बारबार प्राप्त हुआ करते हैं और केवली भगवन्त को प्रथम समय केवलज्ञान, दूसरे समय केवलदर्शन इस प्रकार एक-एक समय के अन्तर पर आदि अनंतकाल तक चालू रहता है, उसमें सिद्धत्व प्राप्ति के प्रथम समय में भी ज्ञानोपयोग ही प्राप्त होता हैं ।
शंका-दर्शन अर्थात् सामान्य उपयोग और ज्ञान अर्थात् विशेष उपयोग, ये दोनों उपयोग जीव के लक्षण है, ऐसा कहकर पुनः उपयोग को भी जीव के लक्षण के तौर पे आगे अलग कहेंगे । तो इन तीनों में किस प्रकार की भिन्नता हैं ?
उत्तर—हे जिज्ञासु ! ज्ञान, दर्शन और उपयोग ये तीनो वास्तविक रुप से सर्वथा भिन्न नहीं हैं, क्योंकि जीव का मूल भी उपयोग हैं, परन्तु वह उपयोग जब वस्तु के विशेष धर्म ग्रहण में प्रवर्तित हो तब उसे ज्ञान कहा जाता है, और वस्तु के सामान्य धर्म ग्रहण में प्रवर्तित हो तब वही उपयोग दर्शन कहा जाता है । इस प्रकार ज्ञान, दर्शन और उपयोग सर्वथा भिन्न नहीं हैं तो भी सर्वत्र ज्ञान का माहात्म्य अतिशय होने से ज्ञान की मुख्यता बताने के लिए जीव के विशेष उपयोग रूप ज्ञान को छः लक्षण में सब से पहले कहा और दर्शन वह प्राथमिक (सामान्य) उपयोग हैं, इसलिए उसे दूसरा लक्षण कहा हैं, जिससे सर्व सिद्धान्तों में और प्रसिद्धि में भी जीव के गुण ज्ञान-दर्शन आदि कहे जाते हैं । पुनः ज्ञानोपयोग उस ज्ञेय पदार्थ का संबंध होने पर भी तुरंत प्रथम समय में नहीं होता परन्तु प्रथम समय से ज्ञान मात्र वृद्धि पाते-पा अन्तर्मुहूर्त काल में जो निश्चित अथवा विशिष्ट अवबोध होता हैं, वह ज्ञान हैं, और वह दूसरे अन्तर्मुहूर्त तक ही टिक सकता हैं, उसमें पहले अन्तर्मुहूर्त संबंधित जो अनिश्चित अथवा अविशिष्ट बोध वह दर्शन है । ( वह श्री भगवतीजी का भावार्थ द्रव्यलोक प्रकाश में कहा हैं और वह छद्मस्थ के दर्शन - ज्ञान की अपेक्षा से ठीक संभवित होता हैं ।)
(ज्ञान-वस्तु में रहे हुए विशेष धर्म को जानने की आत्मा में रही हुई शक्ति, वह ज्ञान । वस्तु में रहे हुए सामान्य धर्म को जानने की आत्मा में रही हुई शक्ति वह दर्शन और उन दोनों शक्तियों का व्यापार, इस्तेमाल वह उपयोग । ज्ञानशक्ति का उपयोग, वह ज्ञानोपयोग और दर्शनशक्ति का उपयोग, वह दर्शनोपयोग 1)
(३) चारित्र
चारित्र सामायिक-छेदोपस्थापनीय - परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय - यथाख्यात- देशविरति और अविरति ये सात प्रकार से हैं । यह चारित्र भाव से - हिंसादिक अशुभ परिणाम से निवृत्त (विरक्त) होने रूप है और द्रव्य से व्यवहार से अशुभ क्रिया के निरोध (त्याग) रूप हैं, इन सात चारित्र में से कोई भी चारित्र हीन या अधिक प्रमाण में प्रत्येक जीवमात्र को होता ही हैं, और जीव से अतिरिक्त दूसरे किसी द्रव्य में वह नहीं होता है । इसलिए चारित्र वह जीव का लक्षण कहा हैं । चरन्ति अनिन्दितमनेनेति चारित्रम् जिसके द्वारा अनिन्दित (अर्थात् प्रशस्त-शुभ) आचरण हो उसे चरित्र अथवा चारित्र कहा जाता हैं । अथवा अष्टविधकर्मचयरिक्तीकरणाद् वा चारित्रम् आठ प्रकार के कर्म संचय को (कर्म के संग्रह को) खाली करनेवाला होने से चारित्र कहा जाता हैं अथवा चर्यते गम्यते अनेन निर्वृत्ताविति चारित्रम् जिसके द्वारा (जिसके आचरण द्वारा) मोक्ष में जा सके वह चारित्र कहा जाता हैं । वह चारित्र चारित्र मोहनीय उपशम से तथा क्षयोपशम से हीनाधिक और क्षय से संपूर्ण होता हैं ।
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(४) तप :- तप द्रव्य से और भाव से, बाह्य तप और अभ्यन्तर तप, वह ६-६ प्रकार से १२ प्रकार का तप आगे निर्जरा तत्त्व की गाथा में कहा जायेगा । अथवा सामान्य से इच्छा का रोध (इच्छा का त्याग अथवा इच्छा को रोकना) वह निश्चय तप-भाव तप हैं । इन तप के भेदो में से कोई भी भेदवाला तप प्रत्येक जीव मात्र को होता हैं और वह भी हीन
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