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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ ३८९/१०१२ परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ जीव के चौदह प्रकार और उसका स्वरूप : १. अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, २. पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, ३. अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, ४. पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, ५. अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, ६. पर्याप्त द्वीन्द्रिय, ७. अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, ८. पर्याप्त त्रीन्द्रिय, ९. अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, १०. पर्याप्त चतुरिन्द्रिय, ११. अपर्याप्त असंज्ञीय पंचेन्द्रिय, १२. पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, १३. अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय, १४. पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रीय(1) । जो एकेन्द्रिय जीव के बहोत शरीर एकत्र होने पर भी दृष्टिगोचर न हो, उपरांत स्पर्श से भी जानने में न आये, वे सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव चौदह राजलोक में सर्वत्र व्याप्त रहे हुए हैं । लोकाकाश में ऐसी कोई जगह नहीं हैं कि, जहाँ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव न हो । वे जीव शस्त्रादिक से भेदे-छेदे नहीं जाते, अग्नि से जल नहीं सकते । मनुष्यादिक के कुछ भी उपयोग में नहीं आते हैं, अदृश्य है, किसी इन्द्रिय से जाने नहीं जा सकते और सूक्ष्म नामकर्म के उदय से ही ऐसे प्रकार के सूक्ष्मत्व को प्राप्त हुए है । ये सूक्ष्म जीवो की हिंसा मन के संकल्प मात्र से हो सकती है, परन्तु वचन से अथवा काया से हिंसा नहीं हो सकती है । पुनः ये जीव भी किसी वस्तु को भेदने-छेदने में समर्थ नहीं है, ऐसे ये सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव हैं । वे सूक्ष्म पृथ्वी-अप्-तेउ-वायु और वनस्पति ऐसे पाँचों काय के हैं । __तथा जो एकेन्द्रिय जीवों के बहोत शरीर एकत्र होने से चक्षुगोचर हो सकते हैं (देखे जा सकते हैं), ऐसे बादर नामकर्म के उदयवाले पृथ्वी-अप्-तेउ-वायु और वनस्पति ये पाँच प्रकार के बादर एकेन्द्रियों कहे जाते हैं, ये बादर एकेन्द्रियों में कोई कोई (वायु के जैसे) एक इन्द्रिय ग्राह्य हैं और कोई दो इन्द्रिय से, ऐसे यावत् कोई कोई बादर पाँचो इन्द्रियो से जाने जा सके ऐसे है । ये बादर एकेन्द्रिय मनुष्यादिक के उपयोग में आते हैं । चौदह राजलोक में सर्वत्र व्याप्त नहीं है । परन्तु कुछ खास नियत भाग में है, ये जीव शस्त्र से भेदे-छेदे जा सकते है । अग्नि से जल सकते है और काया से भी उन जीवों की हिंसा होती है । तथा ये जीव एक दूसरे को परस्पर मारते हैं, उपरांत एक ही प्रकार के एकेन्द्रिय स्वंय अपनी जाति से भी मारे जाते है । इसलिए जीव स्वकायशस्त्र, परकायशस्त्र और उभयकायशस्त्र के विषयवाले भी है । तथा शंख, कोडी, जौक, केचुआ - कृमि, आदिक द्वीन्द्रिय जीव हैं, वे केवल बादर नामकर्म के उदयवाले ही हैं, इसलिए बादर होते हैं, परन्तु सूक्ष्म नहीं होते हैं । शास्त्र में कोई कोई स्थान पर द्विन्द्रियादि को भी सूक्ष्म के रूप में कहे हैं। वह केवल अपेक्षा अथवा विवक्षा मात्र से हो कहे हैं, परन्तु वास्तविक रूप से तो बादर ही हैं, इन जीवों को स्पर्शेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय ये दो इन्द्रियाँ होती हैं । इस प्रकार आगे कहे जाते त्रीन्द्रियादि जीव भी बादर ही जाने । तथा गधइयांधान्यकीट-पिल्लू-खटमल-जूं-कुंथुआ-चींटी-योटा-बडी चींटी इत्यादि त्रीन्द्रिय जीव हैं । इन जीवों को स्पर्श - रसना और घ्राणेन्द्रिय ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं । तथा भ्रमर-विच्छ-काई-मकडी-झींगर-टिइडी-खडमकडी इत्यादि चतुरिन्द्रिय जी इन जीवो को श्रोत्रेन्द्रिय के सिवा अन्य ४ (चार) इन्द्रियाँ होती है तथा माता-पिता के संयोग के बिना जल, मिट्टी आदिक सामग्री से अचानक (यकायक) उत्पन्न होनेवाले मेंढक-सर्प-मत्स्य इत्यादि तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य के मलमूत्रादि १४ अशुचि पदार्थों में उत्पन्न होनेवाले संमूर्छिम मनुष्य ये सर्व संमूर्छिम पंचेन्द्रिय कहे जाते है और ये संमूर्छिम पंचेन्द्रिय सर्व तथाप्रकार के विशिष्ट मनोविज्ञान (अर्थात् दीर्घ कालिकी(2) संज्ञा रूप मनोविज्ञान) रहित होने से असंज्ञि पंचेन्द्रिय कहे जाते है । तथा जो जीव माता-पिता के संयोग द्वारा गर्भाशय में उत्पन्न होते है, ऐसे मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय तथा कुंभी 1. एगिदिय सुहुमियरा सन्नियरपणिंदिया य सबितिचउ । अपज्जत्ता पज्जत्ता कमेण चउदस जियाणा ।।४।। (नव.प्र.) 2. दीर्घकालिकी संज्ञा अर्थात् भूतकाल संबंधि और भविष्यकाल संबंधित दीर्घकाल की-पूर्वापर की विचार शक्ति । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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