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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ७९, मीमांसक दर्शन
अगृहीतो योऽर्थो - बाह्यः स्तम्भादिस्तस्याधिगन्तृ-आधिक्येन संशयादिव्युदासेन परिच्छेदकम् । अनधिगतार्थाधिगन्तृप्रागज्ञातार्थपरिच्छेदकं, समर्थविशेषणोपादानाज्ज्ञानं विशेष्यं लभ्यते, अगृहीतार्थग्राहकं ज्ञानं प्रमाणमित्यर्थः । अत्र “ अनधिगत" इति पदं धारावाहिज्ञानानां गृहीतग्राहिणां प्रामाण्यपराकरणार्थम् । “अर्थ” इति ग्रहणं संवेदनं स्वसंविदितं न भवति, स्वात्मनि क्रियाविरोधात्, किन्तु नित्यं परोक्षमेवेति ज्ञापनार्थम् । तच परोक्ष ज्ञान भाट्टमतेऽर्थप्राकट्यफलानुमेयं ̈-3, भाट्टप्रभाकरमते 94 संवेदनाख्यफलानुमेयं वा प्रतिपत्यम् ।
व्याख्या का भावानुवाद :
अब प्रमाणो का विशेषलक्षण कहना चाहिए । विशेषलक्षण सामान्यलक्षण को अविनाभूत होता है । अर्थात् विशेषलक्षण का कथन सामान्यलक्षण के कथनपूर्वक ही होता है । इसलिए पहले प्रमाण के सामान्यलक्षण को कहा जाता है - " अनधिगतार्थाधिगन्तृ प्रमाणम्" पहले नहि जाने हुए पदार्थ को बतानेवाले ज्ञान का प्रमाण कहा जाता है। (सामान्य लक्षण की व्याख्या की जाती है - ) "अनधिगत"
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नहि जाने हुए जो स्तंभादि पदार्थ है, वह बाह्य स्तंभादि पदार्थो को अधिक से = संशयादि दोषो का निरासपूर्वक बतानेवाला जो ज्ञान होता है वह प्रमाण कहा जाता है। अनधिगतार्थाधिगन्तृ-पहले नहि जाने हुए को जो बताता है उसे प्रमाण कहा जाता है । यहाँ लक्षणवाक्य में "ज्ञान" पद नहीं है, तो भी "अगृहीतपदार्थ को जाननेवाला" इस विशेषण के सामर्थ्य से विशेष्यभूत "ज्ञान" पद का बोध होता है । इसलिए लक्षण का आकार इस प्रकार होगा- "अगृहीतार्थग्राहकं ज्ञानं प्रमाणम्" अगृहीत पदार्थ को जाननेवाला ज्ञान प्रमाण कहा जाता है । लक्षण में "अनधिगत" पद गृहीतग्राहि धारावाहिज्ञानो की प्रमाणता के निराकरण के लिए है । "यह घट है, यह घट है" इत्यादि धारावाहिज्ञान में अनधिगत अर्थ का ज्ञान होता नहीं है । परंतु अधिगतार्थ का ही ज्ञान होता है, ० इसलिए उसमें प्रमाणता न आ जाये, इसलिए लक्षण में “अनधिगत” पद का ग्रहण किया हुआ है। (कहने का मतलब यह है कि... धारावाहिज्ञान में अनधिगत अर्थ का ज्ञान होता न होने से वह अप्रमाणरुप है । इसलिए धारावाहि ज्ञान में प्रमाणता न आये इसलिए “अनधिगत” विशेषणपद रखा है।)
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प्रमाण के सामान्यलक्षण में "अर्थ" पद का ग्रहण ज्ञान स्वसंवेदित नहीं है, वह बताने के लिए है । अर्थात् ज्ञान, पदार्थ का ज्ञान करा देता है। परंतु ज्ञान अपने स्वरुप का ज्ञान करा सकता नहीं है। ज्ञान स्वसंवेदी नहीं है, क्योंकि स्वात्मा में क्रिया का विरोध है । अर्थात् अपनी अपने में क्रिया का विरोध है । (पहले कहे
के उदाहरण से समज लेना ।) इसलिए ज्ञान स्वसंवेदी नहीं है, परंतु नित्यपरोक्ष ही है ।
भाट्टमत में इस (३) परोक्षज्ञान का अर्थप्राकट्य नामक फल से अनुमान होता है। प्रभाकर मत में उस परोक्ष ज्ञान का प्रमाण के संवेदनरूप फल से अनुमान होता है । (टीका में " भाट्टप्रभाकरमते " के स्थान पे
(G-93-94 ) - तु० पा० प्र० प० ।
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