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________________ ३५८/९८१ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ७१, मीमांसक दर्शन वेदवाक्य के द्वारा प्रतिपादित यागादि में उपयुक्त होनेवाले द्रव्य, गुण, क्रिया से उत्पन्न होती है। इसलिए स्वर्गादि रुप प्रीति के साधनभूत द्रव्यादि में ही धर्मरुपता है। यद्यपि द्रव्य, गुण और क्रिया इन्द्रियगम्य होने पर भी उसका इन्द्रियगम्य स्वरुप धर्म नहीं है। परन्तु वेद द्वारा प्रतिपादित उसकी श्रेयः साधनता ही धर्म है। वेद द्रव्यादि श्रेयःसाधनता का हमेशा प्रतिपादन करता है। इसलिए द्रव्यादि श्रेयःसाधनरुप से ही धर्म कहा जाता है। उसी ही कारण से उसकी श्रेयः साधनतारुप शक्ति, कि जिसको धर्म कहा जाता है, वह इन्द्रियो का विषय बनता नहीं है। अथ विशेषलक्षणं प्रमाणस्याभिधानीयं, तञ्च सामान्यलक्षणाविनाभूतम्, ततः प्रथम प्रमाणस्य G-92सामान्यलक्षणमभिधीयते । “अनधिगतार्थाधिगन्तृ प्रमाणम्” इति । अनधिगतो(३) प्रामाण्य विचार : प्रामाण्यवाद मीमांसको का विशिष्ट सिद्धांत है। "अयं घटः" इत्यादि ज्ञान उत्पन्न होने के बाद उस ज्ञान की सत्यता (उत्पन्न हुआ ज्ञान सत्य है या असत्य ? उसका निर्णय) उस ज्ञान के द्वारा ही होता है या उसके लिए अन्य ज्ञान की अपेक्षा रहती है। यह प्रश्न प्रामाण्यवाद का हृदय है। प्रामाण्य = ज्ञान की सत्यता । नैयायिक ज्ञान की सत्यता के लिए अन्यज्ञान की अपेक्षा रखते है। "अयं घटः इति ज्ञानवानहं" अथवा "घटमहं जानामि" यह अनुव्यवसायात्मक ज्ञान प्रथम ज्ञान के (अयं घट:) प्रामाण्य का निश्चय कराता है। इस प्रकार ज्ञान का प्रामाण्य अन्यज्ञान के उपर आधारित होने से नैयायिक परतः प्रामाण्यवादी कहे जाते है। मीमांसक स्वतः प्रामाण्यवादी है। अर्थात् ज्ञान की सत्यता का निर्णय ज्ञान स्वयं ही कराता है। उसके लिए अन्य की = पर की आवश्यकता नहीं है। यह उनकी मान्यता है। स्वतः प्रामाण्यवादी होने पर भी मीमांसा के तीन मत अलगअलग तरह से उसकी समज देते है। • गुरुमत : प्रत्येक ज्ञान सत्य ही होता है। "भ्रम" का अस्तित्व ही नहीं है। इसलिए जो सामग्री ज्ञानजनक है, वह सामग्री ही ज्ञान के प्रामाण्य का ग्रह करवाती है । जैसे दीपक का प्रकाश स्वयं को और अन्य पदार्थ को प्रकाशित करता है, वैसे ज्ञान भी स्वयं को तथा पदार्थ को प्रकाशित करता है। • भट्टमत : "अयं घटः" ऐसा ज्ञान जब उत्पन्न होता है, तब ही ज्ञान के विषय घट में "ज्ञातता" नामके पदार्थ की उत्पत्ति होती है। "ज्ञातो घटः" यह प्रतीति ज्ञातता की साधक है। यह ज्ञातता ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय करवाती है। • मिश्रमत : नैयायिको की तरह ही मिश्र भी अनुव्यवसायात्मक ज्ञान प्रामाण्योत्पादक है ऐसा मानते है। प्रामाण्य की तरह अप्रामाण्य का भी निश्चय स्वतः होता है कि परतः यह प्रश्न है। मीमांसक अप्रामाण्यग्रह को परतः ही मानते है । शुक्ति में रजत का ज्ञान अन्यज्ञान से बाधित हो तब ही उसके अप्रामाण्य का निश्चय होता है। (भ्रमात्मक ज्ञान के विषय में मीमांसको का स्वतंत्र मत है। प्रभाकरमिश्र की मान्यता अनुसार प्रत्येक ज्ञान प्रमात्मक ही होता है। भ्रम का अस्तित्व ही नहीं है। शुक्ति में रजत के ज्ञान को भ्रमात्मक कहा जाता है। वह सत्य नहीं है। भ्रमस्थान पे चाकचिक्य इत्यादि रजत के धर्मो को देखकर रजत की स्मृति होती है। (वह स्मृति है, भ्रम नहीं है। ) और शुक्ति का तथा रजत का भेद पकडा नहीं जाता। यही भ्रम की प्रक्रिया है। वस्तुतः यह भ्रम नहीं है। भेदाग्रह है। उनका यह मत अख्याति नाम से प्रसिद्ध है। भट्ट और मुरारि दोनो का मत नैयायिको के जैसा ही है । उसको विपरीतख्याति कहते है।) (G-92) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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