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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ७१, मीमांसक दर्शन ३५७/९८० धर्म अतीन्द्रिय होने के कारण नोदना के द्वारा ही मालूम होता है। अन्य प्रत्यक्षादिप्रमाण से धर्म मालूम होता नहीं है। क्योंकि प्रत्यक्षादिप्रमाण विद्यमानपदार्थो के उपलंभक है। धर्म कर्तव्यतारुप है और कर्तव्यता त्रिकाल शून्य अर्थ रुप है। मीमांसको की मान्यता है कि चोदना = नोदना त्रिकालशून्य शुद्धकार्यरुप अर्थ का ज्ञान उत्पन्न करती है। अब "नोदना तु क्रियां प्रति" पद द्वारा नोदना की व्याख्या करते है। हवन, सर्व जीवो के उपर दया, दान आदि क्रियाओ में प्रवर्तक वेदवचन को मीमांसक नोदना कहते है। तात्पर्य यह है कि हवनादि क्रिया के विषय में वेद का जो वचन प्रेरक बनता है, उसे नोदना कहा जाता है। प्रवृत्ति में प्रवर्तक वेदवचन ही उदाहरण के द्वारा बताया जाता है - "स्व:कामोऽग्नि यथा यजेत्" अर्थात् स्वर्ग की इच्छावालो को अग्निहोत्र यज्ञ करना चाहिए। (यहाँ “यथा" पद उदाहरण को बताने के लिए प्रयोजित किया गया है।) उस वेदवचन का अर्थ यह है - स्वर्ग की इच्छावाला पुरुष अग्नि का तर्पण करे । श्लोकरचना में नियत अक्षर होते है। इसलिए "स्वः कामोऽग्नि यजेत्" यह पद कहा है। वास्तव में वह वेदकथन "अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम" स्वर्गाभिलाषि अग्निहोत्र यज्ञ करे, यह प्रवर्तक वेदवाक्य का ही द्योतक है। अर्थात् उपलक्षण से वेदवचन को प्रवर्तक कहा । बाकी तो निवर्तक वेदवचन भी नोदना कही जाती है। जैसे कि "न हिंस्यात्सर्वभूतानि" - किसी भी जीव की हिंसा न करे, तथा "न वै हिंस्रो भवेत्" - हिंसक न बने । ऐसे निवर्तक वेदवचन भी नोदना कहे जाते है। इस तरह प्रवर्तक और निवर्तक होनो वेदवचन भी नोदना कहे जाते है। यह नोदना = प्रेरणात्मकवेदवचनो से प्रेरणा पाके, प्रेरणा के अनुसार से जब पुरुष द्रव्य, गुण, क्रियाओ से हवनादि क्रियाओ में प्रवर्तित होता है और हिंसादि से वापस आता है, तब उस द्रव्यगुण क्रियाओ में इच्छित स्वर्गादि फल के साधन बनने की जो योग्यता = शक्ति है, उसे ही धर्म कहा जाता है। कहने का मतलब यह है कि पुरुषरुप द्रव्य जो बुद्धि आदि गुणो से हवनप्रायोग्य द्रव्यो को इकट्ठा करके हिलना-चलना क्रिया करता है, वे सभी द्रव्य, गुण, क्रियाओ में स्वर्गादि फल के साधन बनने की जो योग्यता - शक्ति है, उसे धर्म कहा जाता है। इससे यह सूचित होता है कि वेदवचनो के द्वारा प्रेरणा प्राप्त करके भी जो पुरुष हवनादि में प्रवर्तित होता नहीं है, हिंसादि से निवृत्त होता नहीं है और विपरीत रुप से प्रवर्तित होता है, तब उसकी उस अन्यथाप्रवृत्ति में साधनभूत द्रव्य, गुण और क्रियाओ की जो नरकादि अनिष्ट फल के साधक होने की जो योग्यता = शक्ति है उसे ही पाप = अधर्म कहा जाता है। सारांश में इष्टार्थ के साधन होने की जिसमें योग्यता हो वह धर्म और अनिष्टार्थ के साधन होने की जिसमें योग्यता हो उसे अधर्म कहा जाता है । यह मीमांसको की मान्यता है। श्री प्रभाकरमिश्र ने शाबरभाष्य में कहा है कि... "जो जो श्रेयस्कर = कल्याणकारि है, वही धर्म शब्द से कहा जाता है।" इस वचन से प्रभाकरमिश्र ने भी प्रतिपादन किया है कि.... "द्रव्यादि की इष्ट अर्थ को सिद्ध करनेवाली योग्यता ही धर्म है।" श्री कुमारिल भट्ट भी यही कहते है कि.. पुरुष की प्रीति को श्रेय कहा जाता है, वह प्रीति नोदना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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