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________________ ३६०/९८३ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ७२-७३, मीमांसक दर्शन "प्रभाकरमते" ज्यादा उचित लगता है। क्योंकि पहले कुमारिल भट्ट का मत अलग बताया गया है।) अथ प्रमाणस्य विशेषलक्षणं विवक्षुः प्रथमं तन्नामानि तत्संख्यां चाह - अब प्रमाण के विशेषलक्षण को कहने की इच्छावाले ग्रंथकारश्री प्रथम विशेषलक्षणो के नाम और उसकी संख्या कहते है। (मू. श्लो.) प्रत्यक्षमनुमानं च शाब्दं चोपमया सह । अर्थापत्तिरभावश्च षट् प्रमाणानि जैमिनेः ।।७२ ।। श्लोकार्थ : जैमिनिमत में प्रत्यक्ष, अनुमान, शाब्द, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव ये छ: प्रमाण है । ॥७२॥ व्याख्या-प्रत्यक्षानुमानशाब्दोपमानार्थापत्त्यभावलक्षणानि षट् प्रमाणानि जैमिनिमुनेः संमतानीत्यध्याहारः । चकाराः समुञ्चयार्थाः । तत्राद्यानि पञ्चैव प्रमाणानीति प्रभाकरोऽभावस्य प्रत्यक्षेणैव ग्राह्यतां मन्यमानोऽभिमन्यते । षडपि तानीति भट्टो भाषते ।। ७२ ।। व्याख्या का भावानुवाद : ___ जैमिनिमुनि को प्रत्यक्ष, अनुमान, शाब्द, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव ये छ: प्रमाण मान्य है। श्लोक में "च" कार समुच्चयार्थक है। प्रभाकर अभाव को प्रत्यक्ष से ग्राह्य मानकर, अर्थापत्ति तक के पांच प्रमाणो का स्वीकार करते है। भट्ट प्रत्यक्षादि छ: प्रमाणो को मानते है। ॥७२।। अथ प्रत्यक्षस्य लक्षणमाचष्टे - अब प्रत्यक्ष का लक्षण कहते है। __ (मू. श्लो.) तत्र प्रत्यक्षमक्षाणां संप्रयोगे सतां सति । ___ आत्मनो बुद्धिजन्मेत्यनुमानं लैङ्गिकं पुनः ।।७३ ।। __ श्लोकार्थ : विद्यमानवस्तु के साथ इन्द्रियो का सन्निकर्ष होने से आत्मा को जो बुद्धि - ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष कहा जाता है। लिंग से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को अनुमान कहा जाता है। व्याख्या-“तत्र” इति निर्धारणार्थः । इयमत्राक्षरघटना-सतां संप्रयोगे सति आत्मनोऽक्षाणां बुद्धिजन्मप्रत्यक्षमिति । श्लोके तु बन्धानुलोम्येन व्यस्तनिर्देशः । सतां-विद्यमानानां वस्तूनां संबन्धिनि सम्प्रयोगे-सबन्धे सति आत्मनोजीवस्येन्द्रियाणां यो बुद्ध्युत्पादः तत्प्रत्यक्षमिति । सतामित्यत्र सत इत्येकवचनेनैव प्रस्तुतार्थसिद्धौ षष्ठीबहुवचनाभिधानम् बहूनामप्यर्थानां संबन्ध इन्द्रियस्य संयोगः क्वचन भवतीति ज्ञापनार्थम् । अत्र जैमिनीयं सूत्रमिदं “सत्संप्रयोगे सति पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षं" [मीमां० सू०-१।१।४] इति । व्याख्यासताविद्यमानेन वस्तुनेन्द्रियाणां संप्रयोगे संबन्धे सति पुरुषस्य यो ज्ञानोत्पादः, तत्प्रत्यक्षम् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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