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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६७, मीमांसक दर्शन जैमिनि वेश से सांख्यो के जैसे है । वे एकदंड या त्रिदंड को धारण करनेवाले है। लाल रंग के वस्त्र पहननेवाले है। मृगचर्म के आसन के उपर बैठते है । कमंडलु धारण करनेवाले है । मस्तक पे मुंडन करनेवाले संन्यासि इत्यादि ब्राह्मण है । वे उनके गुरु है । वेद के सिवा अन्य कोई वक्ता सर्वज्ञ आदि गुरु नहीं है। वे (संन्यास लेते वक्त) स्वयं ही "तेरा संन्यास हुआ, संन्यास हुआ" - ऐसा बोलकर संन्यास ग्रहण कर लेते है। यज्ञोपवीत धोकर उसका पानी तीन बार पीते है । ३४९ / ९७२ मीमांसक दो प्रकार के है । (१) यज्ञादि क्रियाकांड करनेवाले पूर्वमीमांसक और (२) उत्तर मीमांसक । उसमें पूर्वमीमांसक कुकर्मों का त्याग करके (यजन - याजन, अध्ययन-अध्यापन, दान और प्रतिग्रह, ये) छ: ब्राह्मणकर्मो का (षट्कर्म का) अनुष्ठान करनेवाले तथा ब्रह्मसूत्र को धारण करनेवाले है । वे गृहस्थाश्रम में रहते है तथा शुद्र के अन्न का त्याग करते है । पूर्वमीमांसको में दो प्रकार है । (१) प्रत्यक्षआदि छः प्रमाणो को माननेवाले कुमारिलभट्ट का शिष्य भाट्ट। (२) (अभाव के सिवा) प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणो को माननेवाले प्रभाकरगुरु का शिष्य प्राभाकर । उन मीमांसको में उत्तरमीमांसक है उसे वेदांती कहे जाते है और वे ब्रह्माद्वैत को मानते है - अद्वैतब्रह्म को मानते है। वे कहते है कि "सर्वमेतदिदं ब्रह्म" - सर्व इस (दृश्यमान) जगत ब्रह्म ही है। अर्थात् यह दीखाई देता दृष्ट और स्थूलजगत ब्रह्म के ही अंश है। उत्तर मीमांसक मत में प्रमाण की संख्या पूर्वमीमांसको की तरह ही जानना । तदुपरांत, वे कहते है कि एक ही आत्मा (ब्रह्म) सर्व शरीरो में प्रतिभासित होता है । उनका शास्त्रवचन है कि एक ही भूतात्मा सिद्धब्रह्म सर्व भूतो में रहता है । वही एकरुप से तथा अनेकरूप से जल में पडते चंद्रमा के प्रतिबिंब की तरह दिखता है। अर्थात् जैसे पानी के गमलो में प्रतिबिंबित होता चंद्र (एक ही होने पर भी) अनेक लगता है, वैसे एक ही भूतात्मा सिद्धब्रह्म बहु प्रकार से दिखाई देता है।" दूसरा शास्त्रवचन है कि "यह जो हुआ मालूम होता है या अब जो होनेवाला है, वह सर्व पुरुष (ब्रह्म) ही है ।" (यहाँ पुरुष से ब्रह्म का अभिप्राय है ।) आत्मा (ब्रह्म) में लय होना उसे ही मुक्ति कहा जाता है। (ब्रह्म का ही अंश ऐसा जीव जब (भ्रम के निरासपूर्वक) ब्रह्म में ही लय पाता है, उसको ही जीव की मुक्ति कहा जाता है।) और इस ब्रह्म में लय होनेरुप मुक्ति से दूसरी कोई भी मुक्ति नहीं है। ऐसी वेदांतीओ की मान्यता है । वे ब्राह्मण ही होते है और " भगवत्" शब्द से पहचाने जाते है। उसके कुटीचर, बहूदक, हंस और परमहंस ऐसे चार भेद है । उसमें तीन दण्ड को धारण करनेवाले, शिखा रखनेवाले, ब्रह्मसूत्र को धारण करनेवाले, यजमान के वहाँ भोजन करनेवाले, घर का त्याग करके झोंपडी बनाकर रहनेवाले, कुटीचर कहे जाते है। वे एकबार अपने पुत्र के वहाँ भी भोजन कर लेते होते है। (१) भाग - १ के प्रथम परिशिष्ट में देखें । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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